जैनपदसंग्रह | Jainpadsangrah
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
74
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तृतीयभाग । १८९
संसार रेनका सुपना, तन धन वारि-ब्ूँठा रे ॥
सगवन्त० ॥ १ ॥ इस जोवनका कौन भरोसा,
पावकमें तैणपूछा रे ! । काठ कुदार छियें सिर
याड़ा, क्या समझे मन फरूला रे !'॥ भगवन्त०
॥ २ ॥ स्वारथ साधे पाँच पाँव तू, परमारथकों
लूला रे ! । कहु केसें सुख पैंहे प्राणी, काम करे
दुखमूला रे ॥ भगवन्त० ॥ ३ ॥ मोह पिशाच
छल्यो मति मारे, निज कर कंध वसूढा रे ।
भज श्रीरीजमतीवर भ्रूथर, दो दुरमति सिर
थूला रे ॥ भगवन्त० ॥ ४ ॥
२१. राग विददागरो ।
नेमि विना न भी जियरा ॥ टेक ॥ हर
री हदेठी तपत उर केसो, छावत क्यों निज हाथ
न निंपरा ॥ नेमि विना० ॥ १॥ कारि करि दूर
कपूर कमल दठ, ठगत केरूर केंलाघर सियेरा ॥
१ जठका । २ वुद्बदा । ३ घासका पूठा 1 ४ लँँगडा । प् नेमिनाथ ।
६ देख री। ७ सहेठी-सखी 1८ निकट । ९ कूर। १० चंद्र ।
२१ झोतल |
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