जैनपदसंग्रह | Jainpadsangrah

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Jainpadsangrah by छगनलाल जी महाराज - Chhaganalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तृतीयभाग । १८९ संसार रेनका सुपना, तन धन वारि-ब्ूँठा रे ॥ सगवन्त० ॥ १ ॥ इस जोवनका कौन भरोसा, पावकमें तैणपूछा रे ! । काठ कुदार छियें सिर याड़ा, क्या समझे मन फरूला रे !'॥ भगवन्त० ॥ २ ॥ स्वारथ साधे पाँच पाँव तू, परमारथकों लूला रे ! । कहु केसें सुख पैंहे प्राणी, काम करे दुखमूला रे ॥ भगवन्त० ॥ ३ ॥ मोह पिशाच छल्यो मति मारे, निज कर कंध वसूढा रे । भज श्रीरीजमतीवर भ्रूथर, दो दुरमति सिर थूला रे ॥ भगवन्त० ॥ ४ ॥ २१. राग विददागरो । नेमि विना न भी जियरा ॥ टेक ॥ हर री हदेठी तपत उर केसो, छावत क्यों निज हाथ न निंपरा ॥ नेमि विना० ॥ १॥ कारि करि दूर कपूर कमल दठ, ठगत केरूर केंलाघर सियेरा ॥ १ जठका । २ वुद्बदा । ३ घासका पूठा 1 ४ लँँगडा । प्‌ नेमिनाथ । ६ देख री। ७ सहेठी-सखी 1८ निकट । ९ कूर। १० चंद्र । २१ झोतल |




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