देश का दुर्दिन | Desh Ka Durdin

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Desh Ka Durdin by शिवराम दास गुप्त

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 देश का दुर्निने युववी नैनन अंग. निहारे। के कं? श्रभाकिसण कित श्ावत भोरे ॥ मीठी०-- खिली हैं प्रेम से कलियाँ तमाम योौचन की । गँधा है हार कसर है सजन की मोहन की ॥ करो न सामने युवती के बात प्रीतम की । हँसी में रूठ न जाये कही कली मन की ॥ युवती नैनन अंग निहारे । प्रभाकिरण कित झावत भोरे ॥ मीठी०-- १ सखी--राजछुमारी इस बहती हुई नदी मे इतने ग़ौर से क्या देख रददी हो ? मानसी--सखी में यदद देख रही हूँ कि जब नदी की सुन्दर तरंगे प्रेम और स्नेह से हँसती खेलती एक दूसरे से लिपट कर जल को उछालती हुई मघुर स्वरो में प्रेम का गीत गा रही हैं। तो हम मनुष्य जो इनसे अधिक ज्ञान और बुद्धि रखते हैं क्यों नदी असन्न रहते ? २ स०--यह मनुष्य का दोष है । मानसी--बदद कौन सा दोष है ? जिसके कारण हम अझपनी जाति मे शुद्ध-प्रेम छोर निष्कपट सित्नता नहीं रख सकते ? १ स०--मनुष्य दोने का । मानसी--क्या मनुष्यों का यद्दी स्वभाव है? मैं पू छती हूँ कि यही निमंल जल यदि किसी पात्र में बंद करके इसका प्रवाह रोक दिया जाय तो क्या होगा ?




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