समराइच्चकहा एक सांस्कृतिक अध्ययन | Samraichchakaha Ek Sanskritik Adhyayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
376
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)९ : समराइच्चकहा : एक सॉस्क्ृतिक अध्ययन
से ८२० ई० तक स्वीकार किया जाता है और तर्क में बताया हैं कि हरिभद्र ने
अपने पूर्ववर्ती सभी विद्वानों का उल्लेख किया है किन्तु शंकराचार्य का नहीं
जिससे हरिमंद्र का काल शंकराचार्य के पूर्व निष्चित होना अभीष्ट है ।
उपमितिभवप्रपंचा कथा के रचयिता सिद्धषि ने अपनी कथा की प्रदास्ति में
हरिभद्र को अपना गुरु मान कर उनकी वंदना की है ।* प्रो० आम्यंगर ने
हरिभद्र को सिद्धषि का. साक्षात् गुरु मान कर उनका समय िक्रम संवत् ८००-
९५० माना है; परन्तु जिन विजय के अनुसार आचार्य हरिभद्र हारा रचित
लडितविस्तरावत्ति के अध्ययन से सिद्धाषि का कुवासनामय विष दूर हुआ था ।
इसी कारण मिद्धषि ने उसके रचयिता को धर्मबोधक गुरु माना है ।3
ऊपर के विवरण को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जो
हरिभद्र कुबलयमाला कहा के रचयिता उद्योतन सूरि के गुरु रह चुके थे (जिन्होंने
७७८ ई० में कुवलयमाला कहा की रचना की थी) वह सिद्धि (जिनका समय
ददावीं दाताब्दी के प्रारम्भ का माना जाता है) के गुरु कदापि नहीं हो सकते और
न तो उन पर शंकराचार्य का प्रभाव ही सिद्ध किया जा सकता हैँ ।
हरिभद्र के षइ्दर्दनसमुच्वय दलोक ३० में जयन्त भट्ट की न्यायमंजरी के
कुछ पद्य जैसे के तैसे प्राप्त होते हैं । पंडित महेन्द्र कुमार ने जयन्त की न्याय
मंजरी का रचना काल ई० सन् ८०० के लगभग मानकर हरिभद्र का समय
८०० ई० के बाद का स्वीकार किया है” । किन्तु यह तिथि मान लेने पर हम
उन्हें उद्योतन सूरि का युरु नहीं मान सकते । नेमिचन्द्र दास्त्री के अनुसार
संभवत: हरिभद्र और जयन्त इन दोनों नें किसो एक ही पूर्ववर्ती रचना से उक्त
पद्य को उद्धृत किया हू ।*
सटीकनयचक्र के रचयिता मल्लवादों का निर्देश हरिभद्र ने अनेकान्तजय-
१. मुनि जिन विजय--हरिभद्राचार्यस्य समय निर्णय: ।
२. बही पृ० ६ ।
दे. नेमि चन्द्र शास्त्री-हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आालोचनात्मक
परिशीलन पृ० ४४ ।
४. न्यायमंजरी, विजय नगर संस्करण, पृ० १२९--गम्भीर गजितारंभ-
सिमिनन गिरियह्वरा । रोलम्बगवल ब्याउतमालमलिनत्विष: ॥ त्वंगता-
डिल्लतासंगपिर्शगोतु विग्रह । वृषि व्यमिच रंतहि नैब प्राय: प्रयोमुच: ॥। '
५. सिद्धिविनिदचय टीका की प्रस्तावना, पृ० ५२ ॥
६. नेमिचन्द्र झास्त्री-हरिमद्र के प्राकत कथा साहित्य का आलोचनात्मक
पॉरिशीलन, पुर ंई ॥।
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