अमृताशीति | Amritashiti

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Book Image : अमृताशीति  - Amritashiti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्ताबना आचायें कुन्दकुन्द द्वारा प्रबधित एवं पूज्यपाद आदि आचायों द्वारा पोषित अध्यात्म-परम्परा को नये आयाम देने वाले जैन योग एव, अध्यात्म के महान्‌ आचायें योगीन्दुदेव के यश प्रसार के लिए 'परमात्मप्रकाश' व 'योगसार' जैसे ग्रन्थों के रहते किसी नवीन परिचय की वस्तुत आवश्यकता नहीं है । उनके कृतित्व की जितनी जनख्याति है, उनके व्यक्तित्व के बारे में आज भी अनेकों जिज्ञासाये पुर्वबत्‌ विद्यमान हैं । साम--'परमात्मभकाश' में इन्होने अपना नाम “जोइन्दु दिया है, जो कि विशुद्ध अपभ्र श रूप में इनका निधिवाद नाम माना जाता है, किन्तु इसके सस्क्त- निष्ठ रूपी के बारे मे पर्याप्त अनिश्चितता है । “जोइन्दु' की बतजें 'योगीन्दु' इनका नाम स्वीकार कर इस समस्या का एकपक्षीय समाधान सोच लिया गया है । जबकि आ ० ब्रह्मदेव सुरि, आ० श्रुतसागर सूरि तथा आ० पदुमप्रभभलधारिदेव आदि अनेकों प्राचीन आचार्यों ने इन्हे 'योगीन्द्र' नाम से अभिहित किया है। मह सब जानते देखते हुए भी आज की विद्वत्परम्परा इनके 'योगीन्द' नाम को ्मात्मक घोषित कर रही है, वह भी डॉ० ए० एन० उपाध्ये के 'जोइन्दु' के 'इन्दु' व 'जोगिचन्द' (योगसार में दिया नाम) के “चन्द' को पर्यायवाची कहकर इनका सस्कृत नाम 'योगीन्दु' सिद्ध कर देने मात्र से । यद्यपि इस तक से मेरा कोई मिजी विरोध नही है, तथा डॉ० उपाध्ये की विद्वत्ता का मैं पर्याप्त सम्मान करता हूं, किन्तु उनके समक्ष प्राचीन आचार्यों के चचघनो को उपेक्षित किया जाये, और वह भी तब, जब तक, युक्ति व व्याकरण उनका समथेन करते हो, तो यह विचारणीय हो जाता है कि कही हम “बाबा वाक्य प्रमाणम्‌' के पथ पर अग्रसर तो नही हैं व्याकरणिक दृष्टि से विचार किया जाये, तो अपश्रश भाषा की उकार- बहुला प्रकृति को प्राय सभी विद्वानों व भाषाविदो ने स्वीकार किया है, तदनुसार जैसे “नरेन्द्र का 'नरिदु, 'पत्र' का 'पत्तु” रूप अपअ्श में बनते है, वैसे ही योगीन्द्र > जोईन्द > जोइन्दु रुप भी सहज समझ मे आ सकने वाला तथ्य है। केवल इतना ही नही, इन्होंने स्वय भी अपना नाम “योगी” स्वीकारा है।




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