शतश्लोकी | Shatshloki
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
120
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दतश्होकी द
में झान्मा ही एक सर्वाधिक पिय पदार्थ है (इरीर आदि में तो आवश्यकता
के अनुसार आपेिक प्रियता रहा करती है ) इससे विद्वान् को यही
थिनना मिलती हैं कि आत्मा को ही सबसे अधिक प्रिय समझ कर उसी
की उपासना फिया करें । दूसरे झिसी की भी उपासना न करे (विपयो-
पालना में अपने बहुमूल्य आर्मद्रव्य को कभी व्यय ने होने दे | )
(संसार की प्यारी घस्तुय सदा प्यारी नहीं रहतीं, सदा प्यारा तो
यह आत्मा ही रहता दे )
यसाधावत्पियं खादिद्द हि घिपयत स्तावदसिन् प्रियत्व॑,
यावदूटुग्खं च यसाद्धयति ख़ तत स्तावदेवाग्रियत्वम् ।
नेंक्रसिन सर्वकाठेडस्त्युमयमपि कदाप्यप्रियोपि प्रिय/स्था-
र्रेयानप्यप्रियो बा सततमपि यतः ग्रेय आत्माख्यवस्तु ॥१०॥।
सितत ( मार्च आदि ) विपय से इस लोक में जितना सुख मिलता
हैं उस विपय में उसी परिमाण से उतनी ही प्रीति हो जाती है । तथा
जिन ( भार्या आदि ) पिपय से जितना हु्ख मिलने छगता है. उसमें
उतना ही दे हो जाता है । एक चस्तु में सब समय में दोनों ( प्रिया
तथा भपियता ) बातें कभी नहीं रहती । ( अपने प्रयोजन के अनुसार )
कमी तो भप्रिय बसतु प्रिय बन जाती है और कभी प्रिय भी अप्रिय
हो जाती दै। परन्तु यू आत्मचस्तु तो सदा प्रिय ही प्रिय रदती हैं |
यूददारण्यक के मेत्रेयी घ्राह्मण में कहा गया हैं कि है मेत्रियी, पुच्नों
; छिये मुच्नों से प्यार नहीं किया जाता । किन्तु अपने लिये ही दम उन्हें
प्यार करते है । सब से प्रथम तो हमें अपना आत्मा ही प्रिय होता है |
उसीकें दिये इम पुत्रों को हूँढते फिरते हैं। जो पुरुप गछी में खड़ा
कर पुन के लिये केले किंवा सन्तरें खरीदना चाहता है, जिस प्रकार
उसे केछा फिंवा सन्तरा प्रिय नहीं होता, क्रिन्ठ पुत्र ही प्रिय दोता है,
क्योंकि यह पुत्र के लिये ही तो केढे और सन्तरे को चाहता है, इसी
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