दशगदम प्रश्नव्याकरणसूत्रम | Dashgadam Prashanvyakarnsutram

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Dashgadam Prashanvyakarnsutram by ब्रजलाल जी महाराज - Brajalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपयुक्त समग्र कथन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वैदिक धर्मधारा व्यक्ति मे ऐसा कोई उत्साह जाग्रत नही कर सकी जो व्यक्तित्व-विकास का झावश्यक अग है, नर से नारायण बनने का प्रशस्त पथ है । कालक्रम से परस्पर भिन्न आचार-विचारो के प्रवाह उसमे मिलते रहे । भ्रतएव यह कहने मे कोई सक्षम नही है कि वैदिक धर्म का मौलिक रूप झ्रमुक है । लेकिन जब हम जैन धरम के साहित्य की झथ्रथ से लेकर श्रर्वाचीन धारा तक पर दृष्टिपात करते है तो भाषागत भिन्नता के अतिरिक्त झाचार-विचार के मौलिक स्वरूप मे कोई अन्तर नही देखते हैं । जैनो के झाराध्य कोई व्यक्तिविशेष नही, झमुक नाम वाले भी नही किन्तु वे है जो पुर्ण झाध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न वीतराय है । वीतराग होने से वे श्राराधक से न प्रसन्न होते है श्ौर न भ्रप्रसन्न ही । वे तो केवल शझ्रनुकरणीय श्रादशं के रूप से झाराध्य है । यही कारण है कि जैनधघर्म मे व्यक्ति को उसके स्वत्व का बोध कराने की क्षमता रही हुई है । साराश यह है कि मानव की प्रतिष्ठा बढाने मे जैन धर्म भ्रम्रसर है । इसलिये किसी वर्णविशेष को गुरुपद का झधिकारी श्रौर साहित्य का भ्रष्ययन करने वाला स्वीकार नहीं करके वहाँ यह बताया कि जो भी त्याग तपस्या का मागें अपनाए चाहे वह शुद्र ही क्यो न हो, गुरुपद को प्राप्त कर सकता है भौर मानव मात्र का सच्चा मागंदशंक भी बन सकता है एव उसके लिए जेनशास्त्र-पाठ के लिये भी कोई वाधा नही है। इसी प्रकार की अन्यान्य विभिन्नताएँ भी वेदिक श्रौर जैन धारा मे है, जिन्हे देखकर कतिपय पाश्चात्य दाशेनिक विद्वानों ने प्रारम्भ मे यह लिखना शुरू किया कि बौद्धघमं की तरह जैनघ्मं भी वैदिकधमें के विरोध के लिये खडा किया गया एक क्रातिकारी नया विचार है । लेकिन जैसे-जैसे जैनधमं शौर बौद्धघर्म के मौलिक साहित्य का श्रध्ययन किया गया, पश्चिमी विद्वानों ने ही उनका श्रम हर किया तथा यह स्वीकार कर लिया गया कि जैनव्म बैदिकधर्म के विरोध मे खडा किया नया विचार नही किन्तु स्वतन्त्र धर्म है, उसकी शाखा भी नही है । जेन-साहित्य का झाविभाव काल जैन परम्परा के भ्रनुसार इस भारतवर्ष मे कालचक्र उत्सपिणी भ्ौर झवसपिणी के रूप मे विभक्त है । प्रत्येक के छह झारे--विभाग--द्वोते है । भ्रभी अवसर्पिणी काल चल रहा है, इसके पूरव॑ उत्सपिणी काल था । इस प्रकार झनादिकाल से यह कालचक्त चल रहा है और चलता रहेगा । उत्स्पिणी मे सभी भाव उन्नति को प्राप्त होते है और श्रवसपिणी मे ह्लास को । किन्तु दोनो मे तीर्थकरो का जन्म होता है, जिनकी सख्या प्रत्येक विभाग मे चौवीस होती है । तदनुसार श्रस्तुत झवस्पिणी काल मे चौबीस तीर्थकर हो चुके हैं । उनमे प्रथम ऋषभदेव भर अतिम महावीर है । दोनो के बीच झसख्य वर्षों का अतर है! इन चौबीस तीर्थैकरो मे से कुछ का निर्देश जैनेतर शास्त्रों मे भी उपलब्ध है । इन चौबीस तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट झौर उस उपदेश का झाघार लेकर रचा गया सादित्य जैन परम्परा मे प्रमाणशूत है । जैन परम्परा के झनुसार तीर्थकर अनेक हो किन्तु उनके उपदेश मे साम्य होता है श्ौर जिस काल में जो भी तीर्थंकर हो, उन्ही का उपदेश और शासन तात्कालिक प्रजा मे विचार भौर झाचार के लिये मान्य होता है । इस दृप्टि से भगवान्‌ महावीर अतिम तौर्थकर होने से वतंमान मे उन्ही का उपदेश अतिम उपदेश हैं भर बही श्रमाणशभूत है । शेप तीर्थकरो का उपदेश उपलब्ध भी नही है भ्ौर यदि हो, तव भी वह भगवानु महावीर के उपदेश के झन्तर्गत हो गया ऐसा मानना चाहिये । इसकी पुष्टि डा जैकोवी श्रादि के विचारों से भो होती है । [ हेड |




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