साहित्य - सुषमा | Sahithya Sushama

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आचार्य नंददुलारे वाजपेयी - acharya nanddulare vajpayi

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श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र -Shri Lakshminarayan Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३3४ ) है जो हमारे हृद्य-पटल पर जम चुका है । इस लिये उस प्रभाव को ठीक ठीक शब्दों द्वारा प्रकट करने के लिए हमें उसे बढ़ाकर कहना पडता है । ''कनकशरूघराकार शरीरा” कहने से यह तात्पयं नहीं होता कि वास्तव में उसका शरीर सोने के पहाड के श्राकार का था । वरन्‌ बात यह होतीं है कि सोने के पहाड के देखकर जो भावचित्र हमारे मन पर अंकित होता है, उस शरीर के देखकर उसकी संबाई-चौडाई तथा उँचाई का भी वेसा ही प्रसाव हम पर पढ़ता है। अतएव अत्युक्ति-अलंकार में ब्सत्यता का आरोप करना कांव्य के मुख उद्देश्य की उपेक्षा करना है । काव्य के कितने ही अंतभेद किए गए है । पढ़ले तो गद्य, पद्य और चम्पू की तीन शैलियाँ संस्कृत के काव्य-शास्त्रियो ने अअलग-द्रलग की है। फिर इश्य श्रौर श्रव्य काव्य अथवा कविता, नाटक, उपन्यास, ख्यायिका आदि भेद हुए । कविता में गीतकाव्य, खंड कान्य, महाकाब्य झादि । फिर छुंद्रो की झगणित श्ज्लज्ाएँ और मुक्त दत्त, गद्य निबत, इतिहास, नाना शाख्र, विद्याएँ श्र उनके झनेक अंग-उपाग ये सब मेद-उपभेद्‌ सिलकर संख्याहीन बन जाते हैं । काव्य की झ्रभिव्यक्ति की कौन सी इयत्ता है? चित्रकला की रेखाओं का क्या लेखा है ? कितने रंगरूप है ? सब सिलकर एक अखड़ अभिव्यक्ति का रूप धारण कर लेसे है । अवश्य ही यह अभिव्यक्ति-परंपरा जगत की एक शाश्यत आर अनिवचंनीय विभ्रूति है, जिसका हम साहित्य कहकर निवंचन करते है । लोकहित मद्दाकवि रबीन्द्रनाथ तथा उनके अनुयायिया ने सत्यं, शिवं, सुन्दुरमू के तीन गुणों का श्रारोप जब से काव्य साहित्य से किया लब से प्रत्येक साधारण समीक्षक के विचार में इन तीनों गुणों का अभन्नत्य सान्य हो गया है। जब कभी काव्य की चचाँ ढोती है, इनका उदनेख किया जाता है । परन्तु जिन्होंने इस विषय में कुछ गंभीर बविदार किया है और तथ्य को जानने की चेष्ठा की है वे समझते है कि गोन्द श्छै




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