हिमालय साहित्यिक पुस्तक - माला | Himalay Sahityik Pustak - Mala
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
112
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रोफेसर रामखेलावन पाण्डेय, एम०ए०
प्रधिक वस्तुवादी श्रथवा प्रकृति को तथ्यगत चित्र उतारनेवाली कविता में ऐसे चित्रों
का मोह श्रधिक दीख पड़ता है--
पपीह्ठों की वह पीन पुकार
निरों का भारी भरकर ;
भींगुरों की कीनी कनकार
च -. घनों की गुरु गम्भीर घहर;
विष्दु्रों की छनती छतनकार
दादुरों के वे दुहरे स्वर । -'पंत'
भ्रनुप्रासगत स्वरमैत्रीजन्य संगीत-लालित्य श्रौर माधुर्य से इसे विच्छिन्न कर देखें
तो उत्तर-मूर्त-विधान का सफल चित्र इन पंक्तियों में मिलेगा । चित्र की प्रत्येक
रेखा स्पष्ट श्रौर स्थूल है, किन्तु चित्रों का वास्तविक समन्वित चित्र स्पष्ट रूप में
उपस्थित नहीं होता ।. प्रत्येक चित्र प्रलग श्रौर स्वतंत्र रूप में दीख पड़ता है।
चित्रकार की दृष्टि दुष्य के विशेष श्रंगों पर न होकर समाहित रूप से सम्पूर्ण चित्र
पर पड़ती है, श्रत्यथा चिंत्र विविध रंगों श्रथवा झ्राकृतियों का संघटन तो उपस्थित
करता है, किन्तु मेल नहीं। पंत की इन पंक्तियों में चाक्षुष विम्वों के समाहित
चित्र के स्थान में श्राव्य विम्वों की प्रधानता है जिसकी चर्चा यथास्थान श्रागे की
जायगी। चित्रों में प्रभविष्णुता कलाकार के रागात्मिक श्रावेदा के सामंजस्य से
श्राती है, श्रत्यथा कुछ चित्र उपस्थित कर ही उसे संतोष ग्रहण करना पड़ता है ।
काव्यगत भावृकता के श्र्थ में भी 'कल्पना' दाव्द का प्रयोग होता है। विविध
परिस्थितियों में श्रपने-प्रापकों रखकर कवि उनके श्रनुरूप भाव उपस्थित करता है ।
कवि श्रौर लेखक में इस भावुकता के प्रति श्रधिक मोह देखा जाता है। पर्याप्त
मात्रा में कत्पना एवं सहानुभूति का श्रभाव कहकर श्रालोचक की खिलली उड़ाने
से भी वह नहीं चूकता । भावुकता का संबंध संवेदनशीलता से है। कथबि को
पात्र की परिस्थितियों में श्रपने-ग्रापको रखकर उनकी रागात्मक प्रवृत्तियों के
उद्घाटन में कुछ सीमा तक कल्पना की श्रावश्यकता होती है ; किन्तु केवल वह
कत्पना ही नहीं । कल्पना का क्षेत्र रागात्मक श्रावेदा की सीमा का स्पर्णमाव
करता हूँ--उसे उत्तेजना, तीव्रता श्रथवा श्रावेश देता है ; किन्तु भावृकता-पुर्ण वर्णन
के लिए कल्पना श्रावइ्यक नहीं । ड
“पुर तें निकसी रघुवीर-वधू धरि धीर दये मग में डग है ।
कलकीं भरि भाल कनी जल की पुट सुखि गये मघुराघर हूँ ॥।
फिर पूछति है चलनोश्व कितो पिय पर्नेकुटी करिही कित हूँ ।
तिय की लखि आतुरता पिय की श्रैंखियाँ श्रति चार चलीं जल च्वै ॥
कु
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