भद्रबाहु - चाणक्य - चन्द्रगुप्त - कथानक एवं राजा कल्कि - वर्णन | Bhadrabahu - Chanakya - Chandragupt - Kathanak Evm Raja Kalki - Varnan

Bhadrabahu - Chanakya - Chandragupt - Kathanak Evm Raja Kalki - Varnan   by राजाराम जैन - Rajaram Jain

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प्राकृत- पाली- अपभ्रंश- संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान प्रोफ़ेसर राजाराम जैन अमूल्य और दुर्लभ पांडुलिपियों में निहित गौरवशाली प्राचीन भारतीय साहित्य को पुनर्जीवित और परिभाषित करने में सहायक रहे हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य के पुराने गौरव को पुनः प्राप्त करने, शोध करने, संपादित करने, अनुवाद करने और प्रकाशित करने के लिए लगातार पांच दशकों से अधिक समय बिताया। उन्होंने कई शोध पत्रिकाओं के संपादन / अनुवाद का उल्लेख करने के लिए 35 पुस्तकें और अपभ्रंश, प्राकृत, शौरसेनी और जैनशास्त्र पर 250 से अधिक शोध लेख प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त किया है। साहित्य, आयुर्वेद, चिकित्सा, इतिहास, धर्मशास्त्र, अर

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ्‌्ु [६] महाकवि रइधू (१५-१६वी सदी) की भद्रबाहु-कथा का आधार पुण्याश्रवकधाकोष एवं बृहत्थाकोष है। उसका सार आगे प्रस्तुत किया जायगा। [७] १६वीं सदी में ही एक अन्य कवि 'नेमिदत्त ने भी अपने आराधना-कथाकोष ” ” में भद्रबाहु-कथा लिखी, किन्तु उसका मूल आधार एवं ख्रोत हरिषेण कृत बृहत्कथाकोष ही है। उसके कथानक में भी कोई नवीनता नहीं है। आचार्य भद्रबाहु : एक भ्रम-निवारण आचार्य भद्रबाहु के जीवन -वृत्त के विषय में एक तथ्य ध्यातव्य है कि दि० जैन पट्टावली में इस नामके दो आचार्यों के नाम आए हैं। एक तो वे, जो अन्तिम श्रुतकेवली है और दूसरे वे, जिनसे सरस्वतीगच्छ-नन्दि-आम्नाय की पट्टावली प्रारम्भ होती है *ै। द्वितीय भद्रबाहु का समय ई० पू० ३५ अथवा ३८ वर्ष है, अत इन दोनों भद्रबाहुओं के समय में लगभग ३५० से भी कुछ अधिक वर्षों का अन्तर है। फिर भी कुछ लेखको ने सम्प्रति-चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के स्वप्रों के फल-कथन का भद्रवाहु-प्रथम से सम्बन्ध जोड़कर एक श्रमात्सक स्थिति उत्पन्न की है।* यह सम्भव है कि सम्प्रति-चन्द्रगुप् (द्वितीय) के स्वप्रो का फल-कथन द्वितीय भद्रवाहु ने किया हो। ऐसा स्वीकार नहीं काने से इतिहास-प्रसिद्ध भद्रबाहु प्रथम एवं मौर्य चन्द्रगु्त - प्रथम का गुरु - शिष्यपना तथा उसके समर्थक अनेक शिलालेखीय एवं शास्त्रीय प्रमाण निर्ग्थक कोटि में आकर अनेक श्रम उत्पन्न कर सकते है। उक्त भद्रबाहुचरितो के तुलनात्मक अध्ययन काने से निम्न तथ्य सम्मुख आते है: - [१] (क) आचार्य भद्रवाहु (प्रथम) के समय उत्तर भारत के कुछ प्रदेशों मे अनुमानत£ ई० पू० ३६३ से ई० पू० ३५१ के मध्य १२ वर्षों का भयानक दुष्काल पड़ा था। इसमें श्रावकों द्वारा सादर रोके जाने पर भी आचार्य भद्रबाहु रुके नहीं और वे अपने संघ के साथ चोल, तमिल अथवा पुन्नाट (कर्नाटक) देश चले गये। (ख) आचार्य हरिषिण के अनुसार यह दुष्काल उछयिनी में पड़ा। अतः उन्होंने मुनि. चन्द्रयुप्त (भूतपूर्व उम्यिनी नरेश) अपरनाम जिनवाणी प्रसारक कार्यालय कलकता से प्रकाशित दे०प० कैलाशच-द्र शास््री-जैन साहित्य का इतिहास -पूर्पपीठिका (वाराणसी, १९६३) पृ ३४७-६,। दे० इसी ग्रथ की परिशिष्ट स० ३. (७३ ७४) 1 च्न्ठ अब -!




User Reviews

  • Ishita

    at 2020-01-14 07:37:45
    Rated : 10 out of 10 stars.
    "Master piece of work!!"
    Lives and activities of Bhadrabāhu, Jaina exponent, his disciple Chandragupta Maurya, 4th century B.C., Emperor of Northern India, and Chanakya, Chandragupta's minister.
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