प्रसाद की कला | Prasad Ki Kala
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
318
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रसादूजी की कविता का क्षेत्र ११
उसे यह सोचने का समय भी नहीं मिलता कि झृदय किसको देना है |
उस समय तो--
प्रथम यौवन मदिरा से मत्त, प्रेम करने की थी परवाह
श्र किसको देना है हृदय, चीह्नने की थी तनिक न चाह !
सु्गसिनी के शब्दों में श्रकस्मात जीवन-कानन में एक राका रजनी
की छाया में छिपकर मधुर बसन्त घुस श्राता है । शरीर की सब क्या रियाँ
हरो-मरी हो जाती हैं । सौन्दर्य का कोकिल “कौन कहकर उसको रोकने-
टोकने लगता है; पुकारने लगता है। >६ >६ >६ फिर उसी में प्रेम का
पुकुल लग जाता है, श्र/स. भरी स्मृतियाँ मकरन्द-सी उसमें छिपी
रदती है ।
देखकर जिसे एक ही बार, हो गए हैं हम भी श्चुरक्त
देख लो तुम भी यदि निज रूप; तुम्हीं हो जाद्योगे झासक्त !
यह प्रेम-रूप श्रासक्ति है--श्राँख का खेल है। इद्ध जन इसे डुछ
मी कहें परन्तु घुवक जीवन में इसका एक विशेष महत्व दा
यह रूप-झाकषण विश्व भर में-- समस्त जड़-चेतन में व्याप्त दे ।
प्रसादजी कहते हैं कि संसार में यही एक मात्र परिचय का कारण है /
उषा का प्राची में आभास
सरोरुदद का सर बीच विकास
कौन परिचय था स्या सम्बन्ध
गगन-मंडल में अरुण-विलास !
देखिए, इमारे आदि पुरुष मनु की श्रद्धा का रूप सौन्दर्य पान कर
स्या दशा हुई थी । श्रद्धा की रूप-ज्वाला कैसी थी--
नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रददा सदुल श्रघखुला अन्न
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
सेघ बन बीच गुलाबी रंग ।
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