प्रसाद की कला | Prasad Ki Kala

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : प्रसाद की कला  - Prasad Ki Kala

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about गुलाबराय - Gulabray

Add Infomation AboutGulabray

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रसादूजी की कविता का क्षेत्र ११ उसे यह सोचने का समय भी नहीं मिलता कि झृदय किसको देना है | उस समय तो-- प्रथम यौवन मदिरा से मत्त, प्रेम करने की थी परवाह श्र किसको देना है हृदय, चीह्नने की थी तनिक न चाह ! सु्गसिनी के शब्दों में श्रकस्मात जीवन-कानन में एक राका रजनी की छाया में छिपकर मधुर बसन्त घुस श्राता है । शरीर की सब क्या रियाँ हरो-मरी हो जाती हैं । सौन्दर्य का कोकिल “कौन कहकर उसको रोकने- टोकने लगता है; पुकारने लगता है। >६ >६ >६ फिर उसी में प्रेम का पुकुल लग जाता है, श्र/स. भरी स्मृतियाँ मकरन्द-सी उसमें छिपी रदती है । देखकर जिसे एक ही बार, हो गए हैं हम भी श्चुरक्त देख लो तुम भी यदि निज रूप; तुम्हीं हो जाद्योगे झासक्त ! यह प्रेम-रूप श्रासक्ति है--श्राँख का खेल है। इद्ध जन इसे डुछ मी कहें परन्तु घुवक जीवन में इसका एक विशेष महत्व दा यह रूप-झाकषण विश्व भर में-- समस्त जड़-चेतन में व्याप्त दे । प्रसादजी कहते हैं कि संसार में यही एक मात्र परिचय का कारण है / उषा का प्राची में आभास सरोरुदद का सर बीच विकास कौन परिचय था स्या सम्बन्ध गगन-मंडल में अरुण-विलास ! देखिए, इमारे आदि पुरुष मनु की श्रद्धा का रूप सौन्दर्य पान कर स्या दशा हुई थी । श्रद्धा की रूप-ज्वाला कैसी थी-- नील परिधान बीच सुकुमार खुल रददा सदुल श्रघखुला अन्न खिला हो ज्यों बिजली का फूल सेघ बन बीच गुलाबी रंग ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now