रूपाम्बरा | Roopambara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका प्रकृति-काव्य : काव्य-प्रकृति प्रकृतिकी चर्चा करते समय सबसे पहले परिभापषाका प्रइन उठ खडा होता है। प्रकृति हम कहते दिसे हैं ? वैज्ञानिक इस प्रदइनका उत्तर एक प्रकारसे देते हैं, दार्शनिक दूसरे प्रकारसे, घर्म-तत्त्वके चिन्तक एक तीसरे ही प्रकारसे । गौर हम चाहें तो इतना भर जोड दे सकते हैं कि साघारण व्यक्तिका उत्तर इन सभीसे भिन्न प्रकारका होता है । नौर जव हम “एक प्रकारका उत्तर' कहते हैं, तव उसका अभिप्राय एक उत्तर नही है, क्योकि एक ही प्रकारके अनेक उत्तर हो सकते हैं । इसीलिए वैज्ञानिक उत्तर भी अनेक होते है, दार्दचनिक उत्तर तो अनेक होगे हो, और धर्मपर आधारित उत्तरोकी सख्या धर्मोकी सख्यासे कम क्यो होने लगी ? प्रशनको हम केवल साहित्यके प्रसगमें देखें तो कदाचित्‌ इन अलग- अलग प्रकारके उत्तरोको एक सन्दर्भ दिया जा सकता हैं । साहित्यपकारकी दृष्टि ही इन विभिन्न दृष्टियोंके परस्पर विरोधोंसे ऊपर उठ सकती है--उन सबको स्वीकार करती हुई भी सामब्जस्य पा सकती है । किन्तु साहित्यिक दृषप्टिकी अपनी समस्याएं हैं, वयोकि एक तो साहित्य दर्गन, विज्ञान और धघर्मके विद्वासोंसि परे नही होता, दूसरे सास्कृतिक परिस्थितियोंके विकासके साध-माथ साहित्यिक सवेदनाके रूप भी वदलते रहते हैं । साधारण वोल-चाठमें प्रकृति 'मानव'का प्रतिपक्ष है, अर्थात्‌ मानवेतर ही प्रकृति है--वह सम्पूर्ण परिवेश जिसमे मानव रहता है, जीता है, भोगता है और सम्कार ग्रहण करता हैं। गौर भी स्यूल दृष्ट्ति देखनेपर प्रकृति मानवेतरका वह अथ हो जाती हूं जो कि इन्द्रियिगोचर है--जिसे हम देख, सुन गौर छू. सकतें हैं, जिसकी गन्व पा सकते हैं बौर जिनका आस्वादन कर सकते हैं । साहित्यकी दृष्टि कहीं भी इस न्यूल परिमापाका खण्डन नहीं करती : किन्तु नाथ ही कभी लपनेकों इनी तक सीमित भी नहीं रखती । जयवा यो कहें कि अपनी स्वस्थ अवस्वामें साहित्यणा प्रकृति- भूमिका 4




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