श्री दादूदयाल जी की वाणी | Sri Dadudayal Ji Ki Vaani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९. भूमिका इस महनीय आार्यावते में वैदिक काल से. ढेकर आज तक एक भादश संस्कृति चली अआारही है । उस संस्कृति का प्रादुर्माष वे विकास इस डथार्यावत में ही हुआ है । उच्र संस्कृति का नामकरण यदि किया. जाय तो. मानवश्नस्कृति से अधिक उपयुक्त नाम. उसके लिये नहीं मिल .सकता । मानवसंस्कृति वही है कि जो मानव में मानवता का भाघान कर उसे दानवता से बचा सके । दैवी व झआासुरी सम्पत्‌ के भेद से द्विवाविभक्त सम्पत्तियों में दैवी सम्पद्‌ मानवता का उत्पादक व परिप्रोषक तत्व है और इससे विपरीत झासुरों सम्यतत्‌ दानवता का उत्पादक व परिपोषक तत्व है । सांसारिक प्राणियों का निर्माण दोनों ही. तत्वों से होता है जैसाकि भगवान्‌ मनु ने बतलाया है--- ऋषिम्य प्रितरों जाता। पितृभ्यो देवदानवा ॥ देवेम्यश्च जगत सब चर स्थारवनुपूवंशः ॥ अर्थात्‌ सश्युव्पादक मौलिक शऋषिमाण से पितृप्राण पैदा होते हैं पितृप्राण से देवप्राण व ..नवग्रस और देव व दानव उभयबिघ प्राणोसे चराचरात्मक सकल विश्व की उत्पात होती है । यही कारण है कि संसार में दोनों तत्वों की न्यूनाधिक तारतम्य से प्रत्येक प्राणी में उपलब्धि होती है । इसी तत्व को लक्ष्य में रखकर यह भाभायाक भी लोक में प्रसिद्ध होगया है कि गुणादोषमयं सगे खष्टा सृजति कोतुकी श्र्थात्‌ विधाता ने संप्ार में सभी पदार्थों को गुण व दोष से युक्त तैदा किया है । ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिस में सर्वथा गुण का या दोष का अभाव दृष्टिगोचर होता हो ।. सवंदोधषाकर वस्तु में भी किसी न किसी गुण की उपलब्धि होती है भौर अशेष गुणाकर वस्तु में भी कोई न कोई दोष मिल ही जाता है | छान्दोग्योपनिषत्‌ व. में प्राणुश्रेष्ठताबोधन करने बाली प्रसिद्ध आाख्यायिका में भी यह स्पष्ट किया गया है कि प्राण को छोड़क १--द्या ह प्राजापत्या रच । ततः कनीयसा एव देवा ज्यायसा झखुर |




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