हिमालय की यात्रा | Himalay Ki Yatra

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Himalay Ki Yatra by दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर - Dattatrey Balkrashn Kalelkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ होते ही सॉड़ अपने सींगोंसे ज़मीन खोदकर अुस सघन लगता ह, अुसी तरह यात्राका अवसर प्राप्त होते ही अपनेआप मनुष्यके पेर बिना पूछे चलने लगते हैं । यदि कोओ अुससे पूछे कि “कहाँ चले! तो वह कहेगा -- “मुझे कोओ पता नहीं । जहाँ जा सकूँगा, चला जाअँगा । जाना, चलना, स्थानान्तर करना, अक जगह बेंठे न रहना, नये ने अनुभव करना --बस यही में जानता हूँ । आँखें प्यासी हैं, सारा शरीर क्षुधित है, जिसलिगे पैर चलते हैं । जिससे अधिक में कुछ नहीं जानता । ”” शायद पहदाड़के रहनेवालोंमें चलनेकी आदत अधिक होती है, परन्तु मेदानके निवासी भी कुछ कम घुमक्कड़ नहीं होते । काशीके गंगाजलकों रामेश्वर ले जाकर; रामेश्वरके सेतुकी बाल काशी या हरिद्वार तक पहुँचानेवाले सभी मनुष्य पहाड़ी नहीं होते । मेरे छुटपनके ब्रहुतसे संस्मरण यात्रासे सम्बन्ध रखते हैं। शाहपुरसे हम बेलरगद्दी जाते और वहीँ बरिह्दी, अमरूद, आम या करौदे खाया करते थे । सतारासे जरंडाके पार भी जाकर वहाँ रामदास स्वामीका मठ या हनुमानजीका मन्दिर देखते थे । बेलगॉवसे तिनऔघाट अृतरकर गोआकी अप्रतिम वनश्रीका अवलेकन करते; या फिर अँब्रोलीघाट पार करके सावतवाढ़ीके मोती तालाबके किनारे होनेवाले लकड़ीके रंगीन कामका निरीक्षण करते थे | जद्दाज़में बेठकर कारवार जाते, वहाँके समुद्र तटपर बाढ़के महल बनाते, ऐएना जाकर संगम, पर्वती या चतुःश्रंगीके दशन करते, मिरज, जत, रामदुर्ग, मुधोव्ठ, सैंगली और सावद्ुर जसे देशी राज्येकि मेहमान बनकर मध्ययुगीन भारतवषकी झौंकी देखते और कृष्णाके तीरपर नाचते और कूदते हुमे द्ाथी-से बेल गाय देखकर आनेंदित होते थे । यही मेरे छुटपनके संस्कार हैं । गाड़ीमें घास और गदेला बिछा हो, असे खींचनेवाले बेलॉके गलेमें बंधी घण्टियोंकी आवाज़ रातकी शान्तिको मेदती हो, कहींसे चोर न आ जायें, जिस डरसे जागते रहनेका कत्तेव्य स्वीकारनेपर भी ऑँखिं बीच-बीचमें झपकती हों, और हृड़बड़ाकर फिर खुलते ही, देखो, हम सारी रात किस तरह जागते रहते हैं, यों कहनेवाले तारे माधेपर चमकते हों --यह सारा दृश्य मेरे बचपनके जीवनके साथ मुँधा




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