अपरजिता | Aprajita

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Aprajita by भगवती शरण सिंह - Bhagavati Sharan Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपराजिता १७ फिर मींचीं । महिला मुसकरा पड़ी । दोनों आकंठ एकाकार हो गईं । ““नीमा, सच कह दो नीमा तुम नीमा ही तो हो ?” माछिनी प्रसन्नतासे विह्वल थी । “क्‍या इतने ही दिनोंगें आँखों पर विश्वास जाता रहा”'-- नीमा सुसकरा पड़ी कह कर । “किन्तु हृदय पर है नीमा”--माठिनी सोह्लास कह उठी । बस इतनी ही सी बातोंमें नीमा और मालिनीका टूटा हुआ इतिहास क्रमबद्ध हो गया । जेसे बीचका समय कुछ महत्त्व ही न रखता हो । प्रसन्नताके आवेगमें मािनीका शरीर पारदर्शी हो रहा था । उसका हृदय प्रसन्नताके नि्मठ स्रोतमें छठ-छकर बह रहा था | “पिता जी केसे हैं मालिनी ?””--नीमाने पूछा । “केसे भूल पड़ी नीमा ?-मालिनी झंकत हो उठी । उस दिन नीमाने सारा रंग फीका कर दिया था । पिताजी पर उसका वह असर पड़ा, जिसने उनकी जीवन शक्ति ही ले ली । रायबहादुर अपनी वह शक्ति खोकर जीवित ही सत थे । अब रायबहादुरका उत्साह वायु तरंगों पर नहीं उडता। उनकी प्रसिद्ध जैसे कम हो उठी । “भाइको भर आँख देख न सकी थी, मालिनो । तुम्हारे सुन्दर भाग्य पर बारी न हो सकी थी, बहिन । पिताजीके छिए रसभंग हो उठी थी, सखी । इसीलिए आज भाई हूँ। भाई जी




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