ज्ञानामृत कलश | Gyanamrit Kalash

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Gyanamrit Kalash by आचार्य श्री नेमीचन्द्र - Acharya Shri Nemichandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(मालिनी) न हो मद परभाव-त्याग रुष्टात दृष्टि अति वेग से न वृत्ति, जबलौ उदय हो । तबलों भऋट प्रकाशी, ये स्वानुशुति स्वय, हो सभी अन्य भावों से, बिल्कुल पृथक हो ॥ र६ ॥। (स्वागता) सर्वाँग,. चिदुरस परिपूर्ण मैं, चिन्मात्र, एक स्व को स्वाद स्वयं । किचित्‌ भी, मोह मेरा नहीं नही, चिदुघन, मैं तो शुद्ध तेज पुज ॥ ३०॥। (मालिनी) सकल अन्य भावों से, यो करके विवेक, यह उपयोग स्वयम्‌, एक आत्मा को धार । प्रगटित परमाथ, दर्शन, ज्ञान-वृत्ति, परिणति से रमता, आत्म उद्यान मे ही ॥ ३१ ॥ (वसततिलका) भगवान ज्ञान सिन्धु, सर्वाग उछला, विध्वम पटलब हटा, जड्मूल से ये । अत्यन्त मग्न हो जग, सब एक साथ, त्रिलोक व्यापक ज्ञान के शात रस में ॥ ३२ ॥




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