अनाख्या | Anakhya

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Anakhya by राय कृष्णदास - Rai Krishnadas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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च्घाय-पक्ष देयरा रुपये ले आया । मेने लजाते हुए उन्हें दुनीचन्द के हाथ में रख कर कहा--'“खेद है, इससे अधिक आपकी सेवा नहीं कर सकता ।”. “इतना तो ज़रूरत से ज्यादा है । जब बद-किर्सती से जंग करने सिकला हूँ तो कलकते का किराया भर बहुत था। बहां देख लेता ।. अच्छा से जाउँ ? इस बबत आपका शुक्रिया किस संह से अदा करूँ । जिस दिन यह कर्ज चुका सकंगा उस दिन दुक्ना करूंगा ।' पण्डित जी खड़े होगये। हम दोनों ने भोजन का अनुरोध किया !- किन्तु उन्होंने कहा कि टुन न सिलेंगी। अन्त को एक गिलास दूध लेकर वे रवाना हुए । पं० दुनीचन्द हमारे नगर के सध्यक्रेणी के व्यापारी थे । अपने गुणों से स्वे-प्रिय होगये थे । उनका यह युगान्तर देखकर हम लोग देर तक खेद करते रहे। ठंढ ने कहा--यह तो संसार की लीला है ! उठो, घर सें जाकर. अपना काम देखो ! न मुझे नौकरी करते तेरह वर्ष हो चुकें थे। मेरे साथ के कितने ही गोरे सिबिलियन, कलवटर हो गए थे, पर से अभी जन्ट ही बना था।. आंसू पोंछने के लिए कंसर-ए-हिन्द स्वर्ण-पदक दें दिया गया था। उस समय में पटने में नियुक्त था। घ्रात'काल से अपने दफ्तर में बेठा काम कर रहा था । कुहरा अभी तक छंटा व था। बीच-बीच में सिर उठा कर में उसे देख . लेता, . उसमें. मुझे अनेकों स्मृतति-चित्र दीख पड़ते । ं €




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