जैनसुधाबिंदु | Jainsudhavindu
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
34
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९६ )
ज़ौव का प्रवस् ईश्वर के पाथ में नचीं किन्तु, उसके कर्माधीनरी
है. क्योंकि जो जला करता हैं उसका फ़ल तइतक्षी भोगता है,
सेझे मिछान प्डाने वाले कः सुख मौठा और नीस चावने वाले
का सुख कड़वा क्ोवे तो यक्त वस्त, के स्वभाव का फ़ल है, ईश्वर
पश्मात्मा का इसमें क्या दावा है! ॥
(द) प्रष्ठ ३८०८ पंक्ति १ से स्वामीजो लिखते हैं कि “ आकाश .
में चौद् राच्य तथा पढुमशिला सुक्ति का स्थान मानना यबात
प्रमाण और थयुक्ति से विरुत्ध है, क्षेवल कपोल कल्पना मात्र है,
आदर उसके ऊपर बेठ के चराचर का रखना * और कम करे
झै वहां चला जाना यह भी बात आप लोगों की 'असत्य है ॥
(स) स्वामी जी मच्ाराज चौद्ठ राच्य भावाथ राज्यघानो
नहों है किन्तु राज्य एक प्रकार की माप है, और ऊैनौ लोग
झाकाश में चौदह राज नहीं मानते, किन्तु, जैनशास्ख के लेखा-
मुसार तौन लोक कौ सम्पूण रचना का प्रमागा चौदत्ष राजूऊंचा
है जिसमें नौवे सात राजू चौड़ा मध्य से एक राजू फ़िर ५ राय
फिर अंत में एक राजू इस प्रकार चौड़ा है, भ्रौर घनाकार दइसक
३४३ राज़ है । आपने सना सुनाया गप्प्र शप्प जो मन में या
लिख मारा किसी जेन पुस्तक सें ऐसा लेख नह्ों है, और मोत्त
स्थान सिद्ध शिला कायथाय स्वरूप भी आप कौ समभा में नहीं
आया फ़िर किस आशा पर तर्क करते हैं ॥ ः
(द) प्ष्ट २८८ में जपर लिखे लेख से आगे य्त लिखा है
कि ” यन्ञों के विषय में आप तुतक करते हैं सो पदार्थ विद्या के
गहं छोने से क्योंकि घुत दूध और मांसादिकों के यथावत गुण
+ जितने सेख के तले लकौर खेची गई है, उसकी पुष्टि में
स्वामी छो अपने तादोख ४ नवम्वर सन् २८८० ई० के पत्र मे
(जो उन्दोंने आत्माराम जो को लिखा था) पुस्तक रत्नसार
गोतम मह्ाबीर की चर्चा का प्रमाण तो देते हैं, परन्तु यह्डी
खसभते कि चर वाक्य उलटा चमको हो बाधक है ॥.... 5;
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