पौराणिक नाटक | Pauranik Natak

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Pauranik Natak by मुकुंदास गुप्त प्रभाकर

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ं पुरन्द्र-पराजय . तनी सी शक्ति नहीं रद गई कि वे अपनी इकठोती बैटीकी का तक कर सक.! न गोरी ( करुण स्वरसे ) बैठी ! तू घबरा मत । वे भी तेरे “खसे दुखी हैं । उनका वश चलेगा तो वे तुझे जाने नहीं गव।से,वचेझआारहडई। [ सामनेसे शयाति मानव आता हे । वह ठम्बा तगड़ा! गेर हट्दा कट्टा योद्धा है । उसकी मांसठ श्र बड़ी बड़ी जाओऑपर सोने कड़े हैं, कठिमें व्याघ्र चमें बैँधा हुआ है, सके बिखरे हुए काले काले केश और अधपकी दाढ़ी [सकी भव्यता बढ़ाती हैं, उसके सुखपर क्रोध ओर चिन्ता पलक रही है । वह आकर छुछ देर तक खड़ा रहता हैं, फिर हरी और सुकन्याकी ओर देखे बिना ही एक शिलापर (कार होकर देखता हुआ बेठ जाता है। दोनों ख़ियाँ उसकी ओर देखती हैं और धीरेसे उसके पास आकर खड़ी ते जावी हव | |] शयोति ( निःश्वास लेकर ) क्या करूँ ? इन भगुऑपर मेरा होई चश नहीं चंल रहा है। (सोचता है) उन्होंने भी कैसा हठ कड़ लिया है ? (ठहर कर) और यह सब अन्याय मेरी प्रद्री- र! [गरी शयातिके कंपेपर हाथ रखती है। घर्याति चॉंकता और फिर दुचिधामें अपनी जटापर हाथ फेरने ठगता है ॥]




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