अनेकान्त भाग - 1 | Anekant Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
258
श्रेणी :
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No Information available about ज्योतिप्रसाद जैन - Jyotiprasad Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सम्राट मुहम्मद तुगलक श्रौर महान जैन शासन-प्रभावक
श्री जिनप्रभ सूरि
जेन प्रन्थों में जन शासन की समय-समय पर महान
“प्रभावना करने वाले भ्राठ प्रकार के प्रभावक-पुरुषों का
उल्लेख मिलता है । ऐसे प्रमावक पुरुषों के सम्बन्ध में
प्रमावक-थरिश्रादि महत्वपूर्ण ग्रन्थ रखे गये हैं । भाठ प्रकार
के प्रभावक पुरुष इस प्रकार माने गए है--प्रावचनिक
घमंकथी, वादी, नेमित्तिक, तपस्वी, विद्यावान, सिद्ध भोर
कवि । इन प्रमावक पुरुषों ने ध्रपने भला बारण प्रमाव से
धापत्ति के समय जेन शासन को रक्षा को, राजा-महाराजा
एवं जनता को जन धर्म को प्रतिबोघ द्वारा शासन की
उन्नति की एवं शोभा बढ़ाई । भायरक्षित भमयदेवसूरि
को प्रावचनिक, पादलिप्तसूरि को कवि, विद्याबली भोर
सिद्धविजयदेवसूरि व जीवदेवसूरि को सिद्ध, मल्लवादी
वद्धबादी धौर देवसूरि को बादी, बप्पभट्रिसूरि, मानतुंग-
सूरि को कवि, सिद्धषि को धममंकथो महेन्द्रसुरि को
नेमित्तिक भ्राचायं हेमचन्द्र को प्रावचनिक धघमंकथी श्र
कवि प्रभावक, “प्रभावक-चरित्र' को मुनि कल्याण विजय
जो की महत्वपूर्ण प्रस्तावना मे बतलाया यया है ।
खरतरगच्छ मे भी जिनेद्वरसूरि, अमयदेवसूरि,
जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, मणिघारी-जिनचम्द्रसुरि,
भोर जिनफपतिसुरि ने विधिध प्रकार से जिन शासन की
प्रभावना की है। जिनपतिसुर्रि के पटचर जिने्वरसूरि के
दो महान् पटघर हुए--जिनप्रबोधसूरि तो भोसवाल भौर
जिनसिहसुरि श्रोमालसंघ में विदषेष घमं प्रचार करते रहे ।
इसलिए इन दो भाचायों ये खरतरगच्छ की दो शाखाएं
झलग हो गई । जिनसिहसूरि की शाखा का नाम खरतर
लघु झाचायं प्रसिद्ध हो गया, जिनके शिव्य एवं पट्टदर
जिनप्रभसुरटि बहुत बड़े शासन प्रमावक हो गए हैं, जिनके
सम्बन्ध में मारतोय इतिहासकारों व साघारणतया लोगों
“को बहुत ही कम जानकारी है। इसलिए यहाँ उनका
(0 थो श्गरचन्द नाहटा, बोकामेर
भावदयक परिचय दिया जा रहा है ।
बुद्धाचायं प्रबश्घावली के जिनप्रभसूरि प्रबस्घ में प्राकृत
माषा में जिनप्रभसूरि का भच्छा विवरण दिया गया है,
उनके भ्नुसार ये मोहिल वाड़ी-लाइनू राजस्थान के श्री-
माल ताम्बी गोत्रीय श्रावक महाघर के पुत्र रत्नपाल को
घम्म पत्नी खेतलदेवी की कुक्षि से उत्पस््न हुए थे । इनका
नाम सुभटपाल था । सात-भाठ वर्षे की बाल्यावस्था में ही
पद्मावती देवी के बिदेष संकेत द्वारा श्री जिनसिहसूरि ने
उनके निवास स्थान मे जाकर सुभटपाल को दीक्षित किया
सुरि जी ने झपनी भायु भ्ल्पज्ञात कर सं० १३४१
किढ़वाणा नगर में इन्हे भाचार्य पद देकर श्रपने पटपर
स्थापित कर दिया । 'उपदेदा सप्ततिका!, में जिनप्रभसुर्रि
सं० १३३२ में हुए लिखा है, यह सम्भवत: जन्म समय
होगा । थोड़े ही समय में जिनसिंह सुरि जी ने जो
पद्मावती भ्राराघना की थी बह उनके दिष्य-जिनप्रभसूर्दि
जो को फलवती हो गई श्रीर श्राप व्याकरण, कोश, छंद,
लक्षण, साहित्य, स्याय, षट्दर्शन, मत्र-तंत्र भ्रोर जन
दर्धन के महान विद्वान बन गए । भापके रचित विशाल
घोर महत्वपूर्ण विविघ विषयक साहित्य से यह भली-भांति
स्पष्ट है । धन्य गच्छीय भोर खरतरगरुछ की रुद्रपतलीय
हाखा के विद्वानों को धापने भध्ययन कराया एवं उनके
ग्रस्यों का संशोधन किया ।
भ्रसाधारण विद्वसा के साथ-साथ पद्मावती देवी के
सान्रिध्य द्वारा झापने बहुत से चमत्कार दिखाये हैं जिनका
वर्णन खरतरगच्छ पट्टावलियों से मो अधिक तपागच्छीय
ग्रन्थों में मिलता है ध्रोर यह बात विदेष उल्लेख योग्य
है। स० १४०३ में सोमघमं ने उपदेश-सत्ततिका नामक
अपने महत्वपूर्ण प्रत्य के तृतीय गुरुत्वाघिकार के पंचम
उपदेश में जिनप्रमसूरि के बादशाह को प्रतिबोध एवं कई
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