कसाय पाहुडम [भाग २] [पयडि विहत्ति] | Kasaya Pahudam [Part 2] [ Payadi Vihatti]

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Kayaya Pahudam [Part 2] [ Payadi Vihatti] by गुणभद्र - Gunbhadra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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:'. *. प्रस्तावना | ४ किन्दु यह स्पष्ट है कि आत्माके अभ्युत्थानके लिये इतना सांगोपांग शान होना ही आवश्यक नहीं है परन्तु चित्तका एकाग्र होना भावश्यक हे । और चितकी एकाग्रताके लिये करणानुयोगके ग्रन्थोंकी स्वाध्याय जितनी उपयोगी है उतनी अन्यग्रन्थोंकी नहीं, क्योंकि करणानुयोगका चिन्तन करते करते यदि मन अभ्यस्त हो जाता है तो उसमें कितना ही समय लगाने पर भी मन उचटता नही है और दुनियावी वासनाओमें जानेसे रुक जाता है । इसीसे विपाक विचय और संस्थान विचयको धर्मध्यानका अंग बतठाया है । अत: श्ञानकी विदुद्धि, मनकी एकाग्रता और सद्दिचारोंमें काल क्षेप करनेके लिये ऐसे ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें मन लगाना चाहिये | / ... ह्षकों बात हैं कि उत्तर भारतकें सहारनपुर खतौली भादि नगरोंमें आज भी ऐसे स्वाध्याय प्रेमी सद्यदस्थ हैं, जो ऐसे ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें अपना काठ क्षेप करते हैं। उनमें सहदारनपुरके बा ० नेमिचन्द्र जी वकील व बा० रतनचन्द जी मुख्तार, मुजफ्फर नगरके बा ० मित्रसेन जी, खतौछीके लाला नानकचन्द्रजी तथा सलावाके लाला हुकुमचन्द्रजीका नाम उल्लेखनीय है। बा० मित्रसेनजीने जयघवलाके प्रथम भागकी स्वाध्याय करनेके वाद कुछ दकायें जयधवला कार्यालयसे पूछी थीं जिनका समाधान उनके पास भेज दिया गया था । ला० नानकचन्दजीने तो स्वाध्याय करते समय मूछसे अनुवादका मिलान तो किया दी, साथ ही साथ खतौलीके श्री जिन मन्दिरजीकी जयघवल्यकी लिखित प्रतिसे भी मूठका मिलान करके हमारे पास पाठान्तरौंकी एक लम्बी ताढिका भेजी । किन्ठ उसमें कोई ऐसा पाठान्तर नहीं मिला जो झुद्ध हो और अर्थकी दृष्टिसि महत्त्व रखता हो ।, अधिकतर पाठान्तर लेखकोंके प्रमादके ही सूत्वक हैं, इसीसे उन्हें यहां नहीं दिया गया है । फिर भी उन्होंने मूलमें दो स्थानों पर छूटे हुए. पाठोंकी भर हमारा ध्यान दिलाया है उन्हें हम संघन्यवाद यहां देते हैं- १--छ्रष्ठ ९८, पं० २ में 'णायर-खेट' आदिसे पहले 'गाम' पाठ और होना चाहिये । २--उष्ट ११०, पं० ४ में 'कितणं वा' से पहले “सख्वाणुसरणं' पाठ जोड़ लेना चाहिये | ३-० ३९२, पं० ३ में 'णाणजीवेदि' के स्थान में 'गाणाजीवेहि' होना चाहिये । शुन्योंका खुढासा ः जयधवलाके प्रथम भागके भन्तमें अनुयोगद्दारोके वणनमें मूलमें झून्य रखे हुए हैं । लाला नानक चन्द्रजीने इन झूरन्योका अभिप्राय पूछा था । इस दूसरे भागमें तो चूँकि अनुयोगद्दारोंका ही वर्णन है,. अत: _. मूछमें शून्योकी भरमार है । इन झून्योंके रखनेका अभिप्राय यह है बार बार उसी दाब्दकों पूरा न लिखकर उसके भागे यन्य रख दिया गया है । इससे लिखनेमें लाघव हो जाता है और उसके संकेतसे पाठक छोड़ा ' गया पाठ भी ददयंगम कर लेता है । जैंसे 'कम्मइय०' से कार्मणकाय योगी लिया गया है, सो पूरा “कम्मइय- कायजोगि' न ठिखकर 'कम्मइय०' लिख दिया राया है । ऐसेही सर्वत्र समझ लेना चाहिये । « अढमिति विस्तरेण, ,




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