जैन धर्म मीमांसा | Jain Dharm Mimansa
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
384
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सस्यभदाश्त्रि का रुप ) [ ११
हैं उनके ऊपर हमारे परिणामा का ही अच्छा या चुरा प्रभाव पड़
सकता है, न कि वाहिरी कार्यों का |
४--दूसरे के अभिन्रावो का हमारे उपर प्रनगव अधिण पड़ना
है | ण्क वाढक को प्रेमपवक वहत जोर से थपथपान पर भी चढ़
प्रवन होता है, परत क्राब के साथ उगली का स्पद्टी मी वह सहन
नहीं करता | यदि हमारे विपय में किसी के अच्छे भाव होति
ता हम प्रसन होते हैं और चुरे भाव होते दे. ता अप्रसन्न होति
इसलिये हमको भावना की झुद्धि करना चाहिये |
ग्रश्न-यदि सावयुद्धि के ऊपर ही. कर्तन्याकतन्ण, चारिय
अचारि का निणय करना ह तो * साशत्रिम आर सावक'डिग
अधिकतम प्राणियों का अधिकतम सुख ढन वाली नीति' को कतब्य
की कसोाटी क्यो बताया १? मावना को ही कसौटी बनाना 'गाद्टिय ।
उत्तर-भीवना की मुख्यता होने पर भी कतैब्याकमन्य का
निर्णय करने के छिये किसी कसौटी की आयध्यकता बनी ही रहती
है | उदाहरण के छिये, कुरुक्षेत्र में अर्जुन की भावना थुद्ध होन
पर भी वह यह नहीं समझ सकता था कि इस समय मेरा कतन्य
क्या है ? भावना की वड़ी सारी उफ्योगिता यही हैं कि उपयुक्त
नीति का ठीक ठीक पाछन हो । दाथ पैर आदि स ठीक
ठीक काम करे, इसके छिये प्राण की आवद्यकता है । अकेछे ग्राण
वुछ नहीं कर सकते; साथ ही प्राणदीन झरीर भी व्यय हु | इस
ग्रक्यार उपयुक्त कसाटी न हो तो भावशुद्धि होने पर भी चारित्र
का पालन नहीं हो सकता; और भावयशुद्धि न होने पर उपटुक्त
शी
नीति का पालन भी असंभव है. । इसछिये भावपुबक उपयुक्त नीति
हद
हर
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