जैन धर्म मीमांसा | Jain Dharm Mimansa

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Jain Dharm Mimansa  by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सस्यभदाश्त्रि का रुप ) [ ११ हैं उनके ऊपर हमारे परिणामा का ही अच्छा या चुरा प्रभाव पड़ सकता है, न कि वाहिरी कार्यों का | ४--दूसरे के अभिन्रावो का हमारे उपर प्रनगव अधिण पड़ना है | ण्क वाढक को प्रेमपवक वहत जोर से थपथपान पर भी चढ़ प्रवन होता है, परत क्राब के साथ उगली का स्पद्टी मी वह सहन नहीं करता | यदि हमारे विपय में किसी के अच्छे भाव होति ता हम प्रसन होते हैं और चुरे भाव होते दे. ता अप्रसन्न होति इसलिये हमको भावना की झुद्धि करना चाहिये | ग्रश्न-यदि सावयुद्धि के ऊपर ही. कर्तन्याकतन्ण, चारिय अचारि का निणय करना ह तो * साशत्रिम आर सावक'डिग अधिकतम प्राणियों का अधिकतम सुख ढन वाली नीति' को कतब्य की कसोाटी क्यो बताया १? मावना को ही कसौटी बनाना 'गाद्टिय । उत्तर-भीवना की मुख्यता होने पर भी कतैब्याकमन्य का निर्णय करने के छिये किसी कसौटी की आयध्यकता बनी ही रहती है | उदाहरण के छिये, कुरुक्षेत्र में अर्जुन की भावना थुद्ध होन पर भी वह यह नहीं समझ सकता था कि इस समय मेरा कतन्य क्या है ? भावना की वड़ी सारी उफ्योगिता यही हैं कि उपयुक्त नीति का ठीक ठीक पाछन हो । दाथ पैर आदि स ठीक ठीक काम करे, इसके छिये प्राण की आवद्यकता है । अकेछे ग्राण वुछ नहीं कर सकते; साथ ही प्राणदीन झरीर भी व्यय हु | इस ग्रक्यार उपयुक्त कसाटी न हो तो भावशुद्धि होने पर भी चारित्र का पालन नहीं हो सकता; और भावयशुद्धि न होने पर उपटुक्त शी नीति का पालन भी असंभव है. । इसछिये भावपुबक उपयुक्त नीति हद हर ||




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