जैन धर्म - मीमांसा भाग - 3 | Jain Dharm - Maminsa Bhag - 3

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Jain Dharm - Maminsa Bhag - 3 by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्यक्च कास्प] ` [ ११ है उनके उपर हमरे परिणामो का ही ञच्छाया ठेस प्रमाव पः सकता हे, न कि बहिर कर्योका| - ...... --दसरे के अभिप्रायो का हमारे ऊपर प्रभाव अधिक पडता है । एक वालक को प्रेमपर्वक बहुत जोर से थप्रथपाने पर भी वह प्रतन होता है, परन्तु क्रोध के साथ उंगली :का स्परी भी वह सहन नहीं करता | यदि हमारे विषय में किसी के . . अच्छे भाव होते हैं, तो हम प्रसन्न होते हैं. और बुरे भाव होति दहै. तो अप्रसन्न हेते है इसलिये हमको भावना की झुद्धि करना चाहिये | _ म्क्न-यदि भावयुद्धि के ऊपर ही. कतेव्याकंतव्य, चांरित्र अचास्त्रि का. निर्णय करना है तो ' सार्वत्रिक और. सार्वकालिकं अधिकतम प्राणियां,का अधिकतम सुख देने वाली, नीति” को कर्तव्य की कसौटी क्यों बताया १ भावना को ही कसौटी बनानां चदि | उत्तर-भावना की म्यता होने पर भी -कतेन्याक्तन्य कौ निणय करने के लिये किसी कसौटी की आयश्यकता बनी ही रहती है | उदाहरण के. स्थि, कुरुक्षेत्र मे अञुन की .मावना.जुद्ध होने प्र भी. वहे यह नही समञ्च सकता था- क्ति इस .समय^ मेसं कत्य क्या इ १ भावना कां वडा मारा उपागता. यहा. ह. कं उपयुक्त नीति का ठीक ठीक पालन हो ।: हाथ पेर. आदि - समी, अग .ठीकं - ठीक काम कर, इसके छिये. प्राण की आवश्यकता है. अकेले राणं कुछ नदी ` करः सक्त, साथ -दी.. प्रणहीन इरीर . मी व्यथ ह| “इसी मक्रार्‌ उप्रयुक्त. करौटीः.- त हो. तो मावशुद्धि ` होने. पैरःमी. चासि का पालन नदी हों सकता; ओर्‌ मावञ्यद्धि.. न होने पर, उपयुक्त नीतिं का 'पाठन भी असंभव है: । :इसंछियें भावंपूर्वक उपरक्त, नीति




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