श्री विष्णुपुराण संचित्र | Shri vishnupuran sachitra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
44.35 MB
कुल पष्ठ :
628
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अ० २ |
तदून्नह् परम नित्यमजसक्षयसव्ययसू ।
एकस्बरूप॑ हु सदा हेयाभावाच निमंठसू ॥१३॥।
तदेव. सर्वसेवैतद्रयक्ताव्यक्तरमरूपवतू ।
तथा पुरुपरूपेण कालरूपेण च स्थितसू ॥3४॥।
प्रस्य ब्रह्मणों रूप॑ पुरुषः प्रथमं दविज ।
घ्यक्ताव्यक्ते तथेवान्ये रूपे कालस्तथा परसू ॥१५।
प्रधानपुरुषव्यक्त काठानां परम हि यह् ।
पृदयन्ति सरयः शुद्ध त द्विग्णो। परम पदस्ू ॥9 5॥।
प्रधानपुरुषव्यक्तक्ाठास्तु अधिभागधः ।
रूपाणि स्थितिसर्गान्तव्यक्तिसद्धावहेतवः १७)
व्यक्त विष्णुस्तथाव्यक्तं पुरुष: काल एव च ।
क्रीडतो बालकस्पेव वें तरथ निशासय ।॥१८॥।
अव्यक्तं कारण यत्तत्प्रधानदपिसत्तमें) ।
ग्रोच्यते प्रकूतिः सरक्ष्मा नित्य सदसदात्मकस् ॥।१९॥।
अक्षय्य॑.. नान्यदाधारममेयमजरं 'घुवश ।
शब्दस्पर्शविहदीन॑ तद्रूपादिसिरसहितसू ॥२०॥।
त्रिणु्ण तज्जगधोनिरनादिप्र भवाप्ययस् ।
तेनाग्रे सबंसेवासीदयाएं वे प्रलयादनु ॥२१।॥।
वेदवादविदों विद्न्नियता ज्रह्मवादिनः ।
पठन्ति चेतसेवार्थ श्रधानप्रतिपादकम् ॥२२।।
नाहो न रात्रिने नमी न भूमि-
नसीत्तमोज्योतिरथूच नान्यत् ।
श्रोत्रादिवुद्धचानुपलभ्यमेकं
प्राघानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत ।! २३]
प्रथम जंघ
१५
अब्पय तया एकरूप होने और हेय गुणोके अभावके
कारण विमंल परब्रह्म हे ॥ १०-१३ ॥ वही इन
सब व्यक्त ( कार्य ) मोर भव्यक्त ( कारण ) जगतुके
रूपसे, तथा [| इसके साक्षी ] पुरुष और [ महा-
कारण |] कालके रूपसे स्थित हे ॥ १४ ॥ हे
दविंज ! परब्रहमका प्रथम रूप पुरुष है, अव्यक्त ( फ्रकृति )
और व्यक्त ( महदादि ) उसके अन्य रूप हैं तथा
[ सबको क्षोभित करनेवाला होनेसे ] काल उसका
परमरूप है॥ १५ ॥
इस प्रकार जो प्रधान, पुरुष, व्यक्त और
काल-इन चारोंसे परे है तथा जिसे पण्डितजन
ही देख पाते हैं वही भगबाद् विष्णुका विशुद्ध परम-
पद है ॥ १६ ॥ प्रधान, पुदुष, व्यक्त और काल--
ये | भगवादु किष्णुके ] रूप पृथक्-पृथक्ू संसारकी
उत्पत्ति, पालन भोर संहारके प्रकाश तथा उत्पादनमे
कारण हैं ॥१७ ॥ सगवानु विष्णु व्यक्त, अव्यक्त,
पुरुष और कालरूप भी है, इस प्रकार बालवतु क्रीड़ा
करते हुए उन भगवादुकी लीला श्रवण करो ॥ १८ ॥|
उनमेसे अव्यक्त कारणको जो. सदसद्रप
( कारणशक्तिविदिष्ट ) ओर नित्य ( सदा एकरस )
है, श्रेष्ठ सुनिजन प्रधान तथा सुक्ष्म प्रकृति कहते हैं
॥ १९॥ वह क्षयपरहित है, उसका कोई अत्य
माधार भी नही है तथा भप्रमेय, अजर, निश्चछ,
दाब्द-स्पर्शादिशुन्य और रूपादिरहित है ॥ २० ॥
वहू त्रगुणमय भोर जगतुका कारण है तथा स्वयं
अनादि एवं उत्पत्ति और लयसे रहित दे । यह सम्पूर्ण
प्रपद्च प्रलयकालसे लेकर स्रष्टिकि आादितक उसीसे
व्याप्त था ॥ २१॥ हे विद्वद् ! श्रुतिके ममंको
जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी
मथंको लक्ष्य करके प्रधानके प्रतिपादक इस ( निम्न-
लिखित ) दलोकको कहा करते है--॥ २२॥ उस
समय ( प्रलयकालमे ) न दिन था, न रात्रि थी, न
गाकाश था, न पृथिवी थी, न मन्वकार था; न
प्रकाश था मोर न इनके अतिरिक्त कुछ और ही
था। बस, श्रोब्नादि इन्द्रियो और बुद्धि मादिका
मविषय एक प्रधाव ब्रह्मा पसष ही थार ॥ 23 ॥
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