साहित्य - प्रवाह | Sahitya - Pravah
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about कृष्णदेव प्रसाद गौड़ - Krishndev Prasad Gaud
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)_ साहित्य-प्रवाह
४४ (सन ई० १८-८७ ) के लगभग कविताकी भाषाका शिवा ्व्ह
पड़ा | दोनो श्रोरसे पत्रोमें युद्ध छिंड गया । उस समय पं० श्रीघर पाठकेन
जगत सचाई सार नाम्नी कविता काशी पत्रिकामें छपवाई थी |
कहो न प्यारे मुझसे ऐसा, झूठा है यह सब संसार;
थोथा भगड़ा जीका रगड़ा केवल दुखका देठु पार |
उसके पश्चात झापने ऋठु संदारका कुछ श्रंश अनूदित किया था । श्रीष्म-
वशनका एक छुन्द श्राप लोगोकी सेवाम रखता हूँ ।
खिलजित नव कुसुम्बी रंग सिंदूरका सा ;
दति पवन 'वलेसे वेग जिसका बड़ा है |
निज तट विट्पोंको, 'ोट्योंसे लिपटके ;
विकट प्रबल ज्वाला दाह करती फिरे है ।
इसके पश्चात पं० श्रीघर पाठकनीने खड़ी बोलीमे कविता श्रारंभ कर दी |
यद्यपि उन्होंने कश्मीर सुखमा, तथा ऊनड़ ग्राम आदि त्रज भाषामें ही लिखे
हैं पर श्रव उनकी प्रदडत्ति खड़ी वोलीकी ही श्रोर अ्रर्धिक थी । “हरमिट के
झनुवादका एक छुन्द सुनिये--
प्राण पियारेकी गुणगाथा साधु कहाँ तक मै गा ;
गाते गति चुके नहीं वह चाहे में ही लुक जा ।
विश्व॒ सिंकाई विधिने उसमें की एकत्र बटोर
कलिंहारी त्रिभुवन धन उसपर वारीं काम करोर |
“ान्त पथिक' में द्राप लिखते हैं “--
जहाँ द्रव्य श्रौर स्वाधीनी है. तहाँ चित्त संतोष नहीं ;
जहाँ बनिजका वासा है हा पर महत्व निर्दोष नहीं ।
तथवा-- ह
है स्वदेश प्रेमीका ऐसा ही स्वेत्र देश श्भिमान
उसके मनमें सर्वोत्तम है उसका ही प्रिय लन्म स्थान |
यह खड़ी बोलीकी सरल रचनाएँ हैं । श्रनुवाद दोनेपर भी मौलिकता की
छाप है । लावनी छन्दोका प्रयोग किया गया है । कथानक काव्य है, परिपाटी
पुरानी है । पाठकणी जो बहरे तवील बहुधा लिखा करते थे वह लावनी बालोंके
संसगंका फल. था ।
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