साहित्य - प्रवाह | Sahitya - Pravah

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Sahitya - Pravah by कृष्णदेव प्रसाद गौड़ - Krishndev Prasad Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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_ साहित्य-प्रवाह ४४ (सन ई० १८-८७ ) के लगभग कविताकी भाषाका शिवा ्व्ह पड़ा | दोनो श्रोरसे पत्रोमें युद्ध छिंड गया । उस समय पं० श्रीघर पाठकेन जगत सचाई सार नाम्नी कविता काशी पत्रिकामें छपवाई थी | कहो न प्यारे मुझसे ऐसा, झूठा है यह सब संसार; थोथा भगड़ा जीका रगड़ा केवल दुखका देठु पार | उसके पश्चात झापने ऋठु संदारका कुछ श्रंश अनूदित किया था । श्रीष्म- वशनका एक छुन्द श्राप लोगोकी सेवाम रखता हूँ । खिलजित नव कुसुम्बी रंग सिंदूरका सा ; दति पवन 'वलेसे वेग जिसका बड़ा है | निज तट विट्पोंको, 'ोट्योंसे लिपटके ; विकट प्रबल ज्वाला दाह करती फिरे है । इसके पश्चात पं० श्रीघर पाठकनीने खड़ी बोलीमे कविता श्रारंभ कर दी | यद्यपि उन्होंने कश्मीर सुखमा, तथा ऊनड़ ग्राम आदि त्रज भाषामें ही लिखे हैं पर श्रव उनकी प्रदडत्ति खड़ी वोलीकी ही श्रोर अ्रर्धिक थी । “हरमिट के झनुवादका एक छुन्द सुनिये-- प्राण पियारेकी गुणगाथा साधु कहाँ तक मै गा ; गाते गति चुके नहीं वह चाहे में ही लुक जा । विश्व॒ सिंकाई विधिने उसमें की एकत्र बटोर कलिंहारी त्रिभुवन धन उसपर वारीं काम करोर | “ान्त पथिक' में द्राप लिखते हैं “-- जहाँ द्रव्य श्रौर स्वाधीनी है. तहाँ चित्त संतोष नहीं ; जहाँ बनिजका वासा है हा पर महत्व निर्दोष नहीं । तथवा-- ह है स्वदेश प्रेमीका ऐसा ही स्वेत्र देश श्भिमान उसके मनमें सर्वोत्तम है उसका ही प्रिय लन्म स्थान | यह खड़ी बोलीकी सरल रचनाएँ हैं । श्रनुवाद दोनेपर भी मौलिकता की छाप है । लावनी छन्दोका प्रयोग किया गया है । कथानक काव्य है, परिपाटी पुरानी है । पाठकणी जो बहरे तवील बहुधा लिखा करते थे वह लावनी बालोंके संसगंका फल. था ।




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