वर्धमान - महावीर - स्मृति - ग्रन्थ | Vardhaman Mahavir Smriti Granth

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Vardhaman Mahavir Smriti Granth  by विद्यानन्दजी महाराज - Vidyanandji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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*“नयन द्वादशवर्षाणि साधिकानि छदमस्थो मौनब्रती तपश्चचार ” -- (शीलाक, आचाराग-सूत्रवृत्ति, पु 273) “गमइय छवुमत्थत्त बारसवासाणि पच-मासे य। पण्णरसाणि दिणाणि य तिरयणसुद्धो महावीरो॥।” -- (जयधवला, भाग 7, पु. 81, अर्थ -- मुनिदीक्षा के बाद छदमस्थ-अवस्था मे बारह वर्ष, पाँच माह और पन्द्रह दिन व्यतीत करने के उपरान्त महावीर मन-वचन-कर्म से शुद्ध (वीतरागी-सर्वज्ञ भगवान्‌) बन गये। इसप्रकार तीसरे ' ज्ञान-कल्याणक' का मगल-प्रसग उपस्थित हुआ। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने तत्काल एक योजन के क्षेत्र मे विस्तृत-धर्मसभा ' समवसरण' की रचना की। बारह-सभाओ मे मनुष्य, तिरयंच और देव तीर्थंकर के मगल-प्रवचन ' दिव्यध्वनि' के श्रवणार्थ एकत्रित हुए; किन्तु उन्हे निराश होना पड़ा। नियत-समय पर तीर्थंकर महावीर का वहाँ से विहार हो गया। यह क्रम कई दिनो तक चला, तो इन्द्र चिन्तित हो गया। उसने अपने अवधिज्ञान से जाना कि समर्थ-शिष्य के अभाव मे दिव्यध्वनि निःसृत नही हो रही है। तब अवधिज्ञान से ही गौतम-गोत्रीय इन्द्रभूति नामक विप्रवर को इस पद के योग्य पाया और नीतिपूर्वक वह उन्हे समवसरण मे ले आया। समवसरण मे तीर्थंकर का मानस्तम्भ देखने मात्र से उनमे अतिशय-विनय का भाव जागृत हुआ और उन्होंने तीर्थंकर महावीर का शिष्यत्व अगीकार कर लिया। इस बारे में निम्नानुसार उल्लेख मिलते हैं - “मानस्तम्भ-विलोकनादवनतीभूत शिरो बिश्रता, पृष्ठस्तेन सुमेधसा स भगवानुदिश्य जीवस्थितिम। तत्सशीतिमपाकरोज्जिनपति' सभूत दिव्यध्वनि- दीक्षा पज्चशतैह्विंजतितनयै' शिष्यै सम सोडग्रहीतू॥” -+ (महाकवि असग, वर्धमान-चरितमू, 18/51) मानस्तम्भ के देखने से नम्रीभूत-शिर को धारण करनेवाले उस बुद्धिमान इन्द्रभूति ने जीव के सद्भाव को लक्ष कर भगवान्‌ महावीर से पूछा और उत्पन्न हुई 'दिव्यध्वनि' से सहित भगवान्‌ महावीर ने उसके सशय को दूर कर दिया। उसी समय पाँच सौ ब्राह्मण-पुत्रो के साथ उस इन्द्रभूति ने श्रमण-दीक्षा से अपने को विभूषित किया। “ श्रीवर्द्धमानस्वामिन , प्रत्यक्षी कृत्य गौतमस्वामी “जयति भगवन्‌' इत्यादि स्तुतिमाह। ततश्च जयति भगवान्‌ इत्यादि नमस्कार कृत्वा 'जिनदीक्षा गृहीत्वा केशलोचनानन्तरमेव चतुर््नसमृद्धिसम्पन्नास्त्रयोपि गणधरदेवा. सजाता*। गौतमस्वामी भव्योपकारार्थ द्वादशाग-श्रुतरचना कृतवान्‌।” -+ (वृहद्‌ द्रव्यसग्रह, सस्कृत टीका) अर्थ -- गौतम-गणघधर ने भगवान्‌ महावीर तीर्थंकर के प्रत्यक्ष दर्शन कर * जयति भगवान्‌' इन शब्दो से प्रारभ करते हुये स्तुति की तदनन्तर गौतम, आग्निभूति और वायुभूति इन तीनों विद्वानो ने तीर्थंकर महावीर भगवान्‌ को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। निर्ग्न्थ-दीक्षा ग्रहण की और केशलोच करने के अनन्तर ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान चारो ज्ञान उनको प्रकट हो गये तथा सातो प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट हो तर्थमान-महारीर-स्मृति-ग्न्थ




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