मोक्षशास्त्र प्रवचन भाग - 5 से 10 | Mokshashatra Pravachan Bhag - 5 Se 10
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
29 MB
कुल पष्ठ :
498
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सूत्र € १
लब नहीं, किसी दूसरी वस्तुसे मतलब नहीं, शरीर नही छूट सकता तो बाहर शरीरमात्र ही
रहे श्रौर भ्रन्तः एक श्रपने स्वभावकी घुनमे रहे । ऐसा निरपेक्ष होकर स्वभावकी ग्राराघना
जिससे नहीं बनती वह गहस्यधर्म श्रज्ज़ीकार करता है श्रौर वहाँ गुजारी चलानेके , लिए ये
बातें श्रावश्यक है । तो यह इस शरीरका, इस भवका इन भोजनपान आदिक सुविधावोका
गुजारा करनेके जिए यह निवास है । यहाँ मेरा कुछ नही है, मेरा हित नहीं है, यह पक है,
कीचड है, मेरा सवस्व नहीं है, यह छूट जायगा । देखो यदि यह विश्वास हो कि थे सब
समागम छूट जायेंगे तो इतने ही विश्वासपर बहुत धीरता श्रायगी, क्योकि सम्यग्ज्ञान कर रहा
ना, सम्यग्ज्ञानके बलपर धीरता होती है । देखो लोग बारातमे हजारो रुपयेकी बारूद फूंक देते
हैं, मालिक लोग उसका बुरा नहीं मानते श्रौर एक कटोरी खो जाय दो. रुपयेकी तो उसका
दुख विशेष करते हैं । क्या फर्क पड गया ? उसने उस हजारकों पहलेसे ही सोच रखा था
कि यह तो मिटनेके लिए है, तो फूट जानेपर भी दुख नही होता । श्रौर दो रुपयेकी कटोरी मे
यह विश्वास बना था कि यह तो जिन्दगीभर तकके लिए है तो उसके गुमनेपर दुख मानता
है | तो मिले हुए समागमको यह समभक लें कि ये सब मिटनेके लिए है, बिखरनेके लिए है,
तो इनमे ममता न जगेगी श्रोर पद-पदपर कष्ट महसूस न होगा, ऐसे ही समक्िये कि इस
सच्चे ज्ञानमे ही हमको घीरता, तृप्ति, सतोष, पविष्नता सब कुछ लाभ मिलता है श्रौर ज्रममे
हमको स्व श्रन्थ मिलता है ।
“मतिश्रुतावधि मन पर्यय केवलानि ज्ञानम” इस सुत्रमे वया समझाया जा रहा है ?
ज्ञानका लक्षण बतानेके लिए यह सुत्र नहीं कहा गया । ज्ञानका लक्षण तो शब्द द्वारा, निरुक्ति
द्वारा समभ लेना चाहिए । इस मोक्षशास्त्रमे ज्ञानका और चारित्रका लक्षण नहीं कहा ।
सम्पग्दश॑नका लक्षण कहनेके लिए एक श्रलगसे सूत्र बताया है उसका कारण क्या है ? कारण
यह है कि ज्ञानमे जो शब्द हैं उन शब्दोसे हो ज्ञानकी बात प्रकट हो जाती है । चारित्रके
पाब्दसे ही 'वारित्रकी बात प्रकट हो जाती है, जो उसका लक्षण है । पर सम्यग्दर्शनमे जो
दर्शन शब्द है उससे श्रेथंकी प्रतीति सही नहीं बनती, क्योकि दशंनका देखना भी श्रर्थ है,
झाँखसे श्रवलोकन करना भी श्रथे है । तो चूंकि दर्शन शब्दके श्रनेक अर्थ है, श्रतः सम्यग्दर्शन
धाब्दसे सम्यग्दर्शनकी सही बात प्रकट नहीं होती, भरत सम्यग्दर्शन का लक्षण कहनेकी जरूरत
पड़ी, पर ज्ञान शब्दमे ही ज्ञानका श्रर्थ पडा है । जो जाने सो ज्ञान । जिसके द्वारा जाना जाय
सो ज्ञान । जो जानना सो ज्ञान । तो [ुज्ञानका झर्थे तो ज्ञान शब्दसे ही जाहिर है । यहाँ तो
बतानेका मुख्य प्रयोजन यह है कि ज्ञान पर्यायरहित नहीं श्रर्थात् ज्ञानकी यहाँ ५ पययिं है---
मति, श्रुत, श्रवधि, मनःपयेय, केवल । श्र ऐसा कहनेका प्रयोजन यह है कि जो दार्शापिक
पर्यायरद्वित स्व भावकों म.नते हैं, उनका निराकरण झौर जो स्वभावरहित्त पर्यायकों मानते है
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