मोक्षशास्त्र प्रवचन भाग - 5 से 10 | Mokshashatra Pravachan Bhag - 5 Se 10

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Mokshashatra Pravachan Bhag - 5 Se 10 by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

Add Infomation AboutShri Matsahajanand

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सूत्र € १ लब नहीं, किसी दूसरी वस्तुसे मतलब नहीं, शरीर नही छूट सकता तो बाहर शरीरमात्र ही रहे श्रौर भ्रन्तः एक श्रपने स्वभावकी घुनमे रहे । ऐसा निरपेक्ष होकर स्वभावकी ग्राराघना जिससे नहीं बनती वह गहस्यधर्म श्रज्ज़ीकार करता है श्रौर वहाँ गुजारी चलानेके , लिए ये बातें श्रावश्यक है । तो यह इस शरीरका, इस भवका इन भोजनपान आदिक सुविधावोका गुजारा करनेके जिए यह निवास है । यहाँ मेरा कुछ नही है, मेरा हित नहीं है, यह पक है, कीचड है, मेरा सवस्व नहीं है, यह छूट जायगा । देखो यदि यह विश्वास हो कि थे सब समागम छूट जायेंगे तो इतने ही विश्वासपर बहुत धीरता श्रायगी, क्योकि सम्यग्ज्ञान कर रहा ना, सम्यग्ज्ञानके बलपर धीरता होती है । देखो लोग बारातमे हजारो रुपयेकी बारूद फूंक देते हैं, मालिक लोग उसका बुरा नहीं मानते श्रौर एक कटोरी खो जाय दो. रुपयेकी तो उसका दुख विशेष करते हैं । क्या फर्क पड गया ? उसने उस हजारकों पहलेसे ही सोच रखा था कि यह तो मिटनेके लिए है, तो फूट जानेपर भी दुख नही होता । श्रौर दो रुपयेकी कटोरी मे यह विश्वास बना था कि यह तो जिन्दगीभर तकके लिए है तो उसके गुमनेपर दुख मानता है | तो मिले हुए समागमको यह समभक लें कि ये सब मिटनेके लिए है, बिखरनेके लिए है, तो इनमे ममता न जगेगी श्रोर पद-पदपर कष्ट महसूस न होगा, ऐसे ही समक्िये कि इस सच्चे ज्ञानमे ही हमको घीरता, तृप्ति, सतोष, पविष्नता सब कुछ लाभ मिलता है श्रौर ज्रममे हमको स्व श्रन्थ मिलता है । “मतिश्रुतावधि मन पर्यय केवलानि ज्ञानम” इस सुत्रमे वया समझाया जा रहा है ? ज्ञानका लक्षण बतानेके लिए यह सुत्र नहीं कहा गया । ज्ञानका लक्षण तो शब्द द्वारा, निरुक्ति द्वारा समभ लेना चाहिए । इस मोक्षशास्त्रमे ज्ञानका और चारित्रका लक्षण नहीं कहा । सम्पग्दश॑नका लक्षण कहनेके लिए एक श्रलगसे सूत्र बताया है उसका कारण क्या है ? कारण यह है कि ज्ञानमे जो शब्द हैं उन शब्दोसे हो ज्ञानकी बात प्रकट हो जाती है । चारित्रके पाब्दसे ही 'वारित्रकी बात प्रकट हो जाती है, जो उसका लक्षण है । पर सम्यग्दर्शनमे जो दर्शन शब्द है उससे श्रेथंकी प्रतीति सही नहीं बनती, क्योकि दशंनका देखना भी श्रर्थ है, झाँखसे श्रवलोकन करना भी श्रथे है । तो चूंकि दर्शन शब्दके श्रनेक अर्थ है, श्रतः सम्यग्दर्शन धाब्दसे सम्यग्दर्शनकी सही बात प्रकट नहीं होती, भरत सम्यग्दर्शन का लक्षण कहनेकी जरूरत पड़ी, पर ज्ञान शब्दमे ही ज्ञानका श्रर्थ पडा है । जो जाने सो ज्ञान । जिसके द्वारा जाना जाय सो ज्ञान । जो जानना सो ज्ञान । तो [ुज्ञानका झर्थे तो ज्ञान शब्दसे ही जाहिर है । यहाँ तो बतानेका मुख्य प्रयोजन यह है कि ज्ञान पर्यायरहित नहीं श्रर्थात्‌ ज्ञानकी यहाँ ५ पययिं है--- मति, श्रुत, श्रवधि, मनःपयेय, केवल । श्र ऐसा कहनेका प्रयोजन यह है कि जो दार्शापिक पर्यायरद्वित स्व भावकों म.नते हैं, उनका निराकरण झौर जो स्वभावरहित्त पर्यायकों मानते है




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now