यात्री | Yatri

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Yatri by भाईदयाल जैन - Bhaidayal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रसन्न कर सकते हूं और न श्रानन्द दे सकते हूं ।”” इसपर उकाव को बड़ा क्रोव झाया और उसने कहा, “प्रसन्नता श्रौर श्रानन्द के वच्चें ! ढीठ पक्षी । पंजा मारूं तो दम निकल जाए तेरा । मेरे पंजे के वरावर तो हो नहीं और यह हाथ भर की जिह्न इसपर कौझ्रा उड़कर उकाव की पीठ पर आरा वैठा और लगा उसके पर नोचने । उकाव भुकलाकर ऊंचा-ऊंचा उड़ने लगा कि किसी प्रकार इस तुच्छ पक्षी से पीछा छूटे, किन्तु कोबरा ऐसा जम- कर बैठा कि अन्त में हारकर उसे नीचे ही उततरना पड़ा । उकाव पहले से भी श्रघिक क्रोध में भर गया; उस बुरे समय को कोसता हुभ्रा, उस तुच्छ पक्षी को झ्रपनी पीठ पर लिए वह उसी चट्टान पर श्रा गिरा । इसी समय जाने कहां से एक कछवी झ्रा निकली श्रौर इस हंसानेवाले दृश्य को देखकर कुछ इस प्रकार से हंसी कि हंसते-हंसते लोटपोट हो गई । उकाव ने घमंड से उसको तरफ देखते हुए कहा, “ग्रो सदा से भूमि पर रेंगनेवाले कीड़े ! भला तुम्हें किस वात पर हंसी आरा रही है ?” कछवी वोली, “तुम घोड़ा वन गए हो श्रौर एक नन्हा- सा पक्षी तुमपर सवारी कर रहा हं। पर यह पक्षी है तुमसे बड़ा ही । इसपर उकाव वोला, “श्री, तुम अपना रास्ता नापों । हमारी घरेलू वात है, मेरी घ्ौर मेरे भाई कौए की । [ ३०




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