भारती - कवि - विमर्श | Bharati - Kavi - Vimarsh
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(४७ )
उन्हें सुनभ थी फिर भी उन्होने गोपी-प्रेम के प्रति कुछ भी नहीं
लिखा हैं । इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता हैं कि महा-
कवि उच्च झादशवादी थे । उन्होंने सबंध दाम्पत्य-विपयक
विशुद्ध प्रेम का वशन कर साहित्य में एक उच्च झादशें की
जिसकी प्ररणा उन्दें चादिकथि के रामायण से प्राप्त हुई दे
स्थापना की है। शताब्दियों तक संस्कत-साहित्य मे परवती
कषियो द्वारा इसी पुनीत थादशे की रक्षा हुई है । यह सही है. कि
शूज्नार रस के बणन में वे इतने तल्लोन हो जाते हैं कि कही-
कहीं संयम को खो बैठने है, जिससे उनकी रचना एक-अआधघ जगह
ब्श्लील* और अनुचित हो गई है, ता भी उनकी सरस्वती पर-
कीया ( पर-ख्ली ) विपयऊ प्रेम से कलुपित नहीं होने पाई है ।
उन्होंने अपने काध्यों के आदशे पात्रों द्वारा पर-ख्री विमुखता का
ही' उपदेश दिलाया है |
झगोध्या नगरी की अधिष्ठात्रीं देवी से, जो डार बंद रददमे
पर थी कमरे में घुसकर शय्या के समीप हाथ जोड़कर खड़ी हो
गई थी, सदाराज कुध कहते हैं--हें शुभ ! तुम कोन हो ?
किसकी धर्स्मपत्नी हा? सेरे पास किसलिए आई हो ?
जितेन्द्रिय रघुबंशियों को मनोबूत्ति पर-ख्री-विमुख होती है--
इसे तुम भली भाँति सममकर बात करना |
का टें शुभ कस्य परियहों वा किया मद्भ्यागमकारण ते ।
आचदव सवा वरशिनों रघूणं सनः परखीपिंमुखम्रवृत्ति ॥
* ज्ञातास्वादों विज्वतजघना को विह्ातु समर्थ: -मेघदूत
२ कुमार्सम्भवे उत्तमदेवतयों: पार्वती परसेश्वरयोः सम्मोगवणुनमू ।
इुद पिन्नों सम्भौगवर्युनमिवास्वन्तमनुचितमू इत्याहु |
--साहित्यदरपण सप्तम पस्च्दलेद
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