भारती - कवि - विमर्श | Bharati - Kavi - Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४७ ) उन्हें सुनभ थी फिर भी उन्होने गोपी-प्रेम के प्रति कुछ भी नहीं लिखा हैं । इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता हैं कि महा- कवि उच्च झादशवादी थे । उन्होंने सबंध दाम्पत्य-विपयक विशुद्ध प्रेम का वशन कर साहित्य में एक उच्च झादशें की जिसकी प्ररणा उन्दें चादिकथि के रामायण से प्राप्त हुई दे स्थापना की है। शताब्दियों तक संस्कत-साहित्य मे परवती कषियो द्वारा इसी पुनीत थादशे की रक्षा हुई है । यह सही है. कि शूज्नार रस के बणन में वे इतने तल्लोन हो जाते हैं कि कही- कहीं संयम को खो बैठने है, जिससे उनकी रचना एक-अआधघ जगह ब्श्लील* और अनुचित हो गई है, ता भी उनकी सरस्वती पर- कीया ( पर-ख्ली ) विपयऊ प्रेम से कलुपित नहीं होने पाई है । उन्होंने अपने काध्यों के आदशे पात्रों द्वारा पर-ख्री विमुखता का ही' उपदेश दिलाया है | झगोध्या नगरी की अधिष्ठात्रीं देवी से, जो डार बंद रददमे पर थी कमरे में घुसकर शय्या के समीप हाथ जोड़कर खड़ी हो गई थी, सदाराज कुध कहते हैं--हें शुभ ! तुम कोन हो ? किसकी धर्स्मपत्नी हा? सेरे पास किसलिए आई हो ? जितेन्द्रिय रघुबंशियों को मनोबूत्ति पर-ख्री-विमुख होती है-- इसे तुम भली भाँति सममकर बात करना | का टें शुभ कस्य परियहों वा किया मद्भ्यागमकारण ते । आचदव सवा वरशिनों रघूणं सनः परखीपिंमुखम्रवृत्ति ॥ * ज्ञातास्वादों विज्वतजघना को विह्ातु समर्थ: -मेघदूत २ कुमार्सम्भवे उत्तमदेवतयों: पार्वती परसेश्वरयोः सम्मोगवणुनमू । इुद पिन्नों सम्भौगवर्युनमिवास्वन्तमनुचितमू इत्याहु | --साहित्यदरपण सप्तम पस्च्दलेद




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