समय चीनी धर्म शास्त्र | Sami Cheni Dharam Shastra (1655) Ac (1302)

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Sami Cheni Dharam Shastra (1655) Ac (1302) by जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' - Jugalakishor Mukhtar 'Yugavir'

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाष्यके निर्माणकी कथा १३ नल नर न स्पलध बा स्‍ न नसकल्रनपलमकमररनक ना की ड ्क बल न प्रकाशनका काम फिर कुछ परिस्थितियोंके वश--खासकर पुरातन जैनवाक्यसची तथा स्वयम्भूस्तोत्रादिकी भारी विस्तृत प्रस्ताव ना्ओों ब्पौर दसरे महत्वके खोजप्ण ज़रूरी लेखोंके लिखने एवं श्रन्थोंके प्रकाशन में प्रयू्त होनेके कारण--सक गया । सन्‌ *£ ४२ के माचे मासमें निमानियाकी बीमारीसे उठकर उस कामकों फिरसे हाथमें लिया गया और अनेकान्तमें *'समन्तभद्र-वचनामत” रूपसे उसके दसरे अंशोको देना भी प्रारम्भ किया गया । इतनेमें ही १३ अप्रेल को चल प्रासद्ध तागा-दघटना घटी जिसने प्रारोका हो संकट में डाल दिया था । इस दुर्घटनासे कान आओर भी खड़े दोगये और इसलिये स्वस्थ दशामें भी भाष्यकें तय्यार अंशॉको प्रकाशमें लाने ादिका काय यथाशक्य जारी रक्‍्खा गया अर जिन कारिकाउओंकी व्याख्या नहीं लिखी जा सकी थी उनमेंसे अनेक की। मात्र अनुवादके साथ ही प्रकाशित कर दिया रया--बादकों यथासमयर तत्सम्बन्धी व्याख्याओंकी पूर्ति होती रही । इस तरह अनेक विष्न-वाघाओोंकों पार कर यह भाष्य सन. १६४३ के उत्तराद्धमें बनकर समाप्त हुआ है । आर यों इसके निर्माणमें १२९ वष लग गये--संकल्पके पूरा होनेमें तो २० व्पसे भी ऊपरका समय समभिये । में तो इसे स्वामी समन्तभ द्रके शब्दोंमें “अलंघ्य शक्ति भवितव्यता'का एक विधान ही समभता हूँ और साथ ही यह भी समभता हैं कि पिछली भीषण ताँगा-द्घेटनासे जो मेरा संत्राण हुआ हैं वद्द ऐसे सत्संकल्पोंको पूरा करनके लिये ही हश्रा हैं । अत: इस ग्रन्थरत्नको वतमान रूपमें प्रकाशित देखकर मेरी प्रसन्नताका होना स्वाभाविक है और इसके लिये में गुरुदेव स्वामी समन्तभद्रका बहुत आभारी हूं जिनके वचनों तथा आरा- घनसे मुे बराबर प्रकाश, पेय ओर बल मिलता रहाहे । वीरसेवामन्दिर, दिल्‍ली फाल्युन कृष्णा द्वादशी ,सं० २०११ जुगलकिशोर मुख्तार




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