अनेकान्त [वर्ष ५३] [किरण १] [जनवरी-मार्च २०००] | Anekant [Year 53] [Kiran 1] [Jan-March 2000]

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Anekant [Year 53] [Kiran 1] [Jan-March 2000] by आचार्य जुगल किशोर जैन 'मुख़्तार' - Acharya Jugal Kishor Jain 'Mukhtar'

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विचारणीय जैनों के सैद्धान्तिक अवधारणाओं में क्रम परिवर्तन-2 -नंदलाल जैन कार्ल सागन ने बताया है कि पुरातन धार्मिक मान्यताओं या विश्वासों के मूल में बौद्धिक छानबीन के प्रतिरोध की धारणा पाई जाती है। यहीं वृत्ति वर्तमान धार्मिक अनास्था का कारण है। इसी कारण, गेलीलियो, स्पिनोजा,, व्हाइट आदि जिन पश्चिमी अन्वेषकों ने ऐसी खोजे की जो प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के विरोध में थी, उन्हें दण्डित किया गया। यह भाग्य की बात है कि विश्व के पूर्वी भाग में ऐसा नहीं हुआ। परन्तु यह माना जाता है कि अनेक प्राचीन धार्मिक मान्यतायें प्रचलित सामाजिक, राजनीतिक (जैसे राजा के देवी अधिकार आदि) एवं आर्थिक (गरीब ओर धनिक का अस्तित्व आदि) स्थिति को यथास्थिति बनाये रखने मेँ सहायक रही है । जो धर्म संस्थाय इनमें होने वाले परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील नहीं होती, वे जीवन्त ओर गतिशील नहीं रह पाती । जो धर्मसंस्थायं बौद्धिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण पर जितनी ही खरी उतरती दै, वे उतनी ही दीर्घजीवी होती है । उनमें उतना ही सत्यांश होता है । आधुनिक तर्कसंगत विश्लेषण एवं अनुगमन के युग मेँ सागन का मत जैन मान्यताओं पर पर्याप्त मात्रा में लागू होता हैं यही कारण है कि उसकी मान्यताओं में समय-समय पर परिवर्धन, विस्तारण एवं संक्षेपण हुए हैं और ' वह युगानुकूल बना रहा है। इन प्रक्रियाओं के कुछ उदाहरण 'साइंटिफिक कन्टेन्ट्स इन जैन कैनन्स” (पार्श्वनाथ विद्यापीठ, काशी 1996) में विवरणित है। तुलसी प्रज्ञा 23-4 में इससे सम्बन्धित आठ प्रकरण दिये गये हैं। प्रस्तुत अध्ययन इस श्रृंखला का दूसरा खण्ड है। इसमें 11 प्रकरण और दिये जा रहे हैं। ये मुख्यतः धार्मिक आचार एवं विचारों से संबंधित हैं। ये इस तथ्य के संकेत हैं कि विविध जैन अवधारणायें समय-समय .पर परिवर्धित और विकसित होती रही हैं और अपनी वैज्ञानिकता का उद्घोष करती रही है।




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