एकांकी - कला | Ekanki-kala

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Ekanki-kala by डॉ रामकुमार वर्मा - Dr. Ramkumar Varmaत्रिलोकीनारायण दीक्षित - Trilokinarayan Dikshit

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त्रिलोकीनारायण दीक्षित - Trilokinarayan Dikshit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९ नष्ट-त्रष्ट करना चाहता है किन्तु पुनलिमाण के लिये कोई कार्य निधोरित नददीं करता । इसमें काई सन्देदद नद्दीं कि जीवन की वास्तविकता हमारे नादक की श्राघार-शिला होनी चाहिये पर जिस वास्तविकता में कोई आकर्षण नहीं है वदद हमें रुचिकर सहीं हो सकती । हमारे जीवन में सदस्त्रों घटनायें घटित होती रहती हैं किन्तु उन में से कितनी हमें याद्‌॒ रहती हैं और जब हमें रंगमंच के थोड़े से समय में जीवन का चित्रण करना शोता है तब इमें जीव की ऐसी घटनाएँ ते चाट्यि ही जा हर की सहानुभूति प्राप्त कर सके या इमारीं रागात्मक प्रवृत्तिमें कल चेतना ला सके । यदि साघारण घटन्ओं की आवृत्ति ही रंगमंच पर हो ते हमारा जीवन ही कया कम वास्वविकता का केन्द्र है कि दम उसे भूल कर रंगमच की शरण लें । परिस्थिति यह है कि हमारे जीवन की वास्तविकता के घनीभूत करने में हमें कला का 'झाश्रय लेना आवश्यक हो जाता है और यहीं “'यथाथे' में क्षण उत्पन्न डोता है! रूप और रंग का सल्िवेश हमारे अजुभव की घटनाओं में प्राण-प्रतिष्ठा कर रंगमच पर समार॑जनल का साधन बनता है । ्ापके। अपने वार्तालाप में भी अनुभव होगा कि जब बाप किसी घटना के यथावत्‌ कहते हैं तब उसमें लोगां के विशेष दिलचस्पी नददीं दोची लेकिन जब आप उसी में अपनों ओोर से. “नसक,-सिर्च' लगा देते हूँ ते बद्दी इसमे हेसाने की सामश्री बन जाती है' । घटना की झन्य साधारण बातों के हम छोड़ देते




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