विज्ञ विनोद | Vigya Vinod

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Vigya Vinod  by महावीरप्रसाद द्विवेदी - Mahaveerprasad Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(& ) यतिभटड” इस समास को पठटो-ठत्पुरुष नहीं, किन्तु पश्चप्री- | तत्पुरुप समझ श्रौर “यति का भट्ट” श्र्थ न करके “यति से '. झट” रथ कर । श्रर्थात्‌ तू यति को भड्न करने पर नहीं किन्तु यति से भट्ट होने पर प्रदत्त हुआ है । मरडन-'बच बूहमा बच च दु्सेंघा क्य संन्यास: क्य वा कलि' । स्राइसभदयकामेन वेपो5य योगिनां छत” ॥ कहदं त्रह्म, कहाँ दुबुंद्धि ? कहाँ सन्यास कहाँ कलि ? शूदस्थों को वश्चित करके सुखादु भोजन करने हो के लिए तूने यह सन्यासियों का रुप धारण किया है। शक्रा--“'कव स्तर क्व दुराचार. क्वासितिहो्न के वा कलि । मन्ये मैधुनकामेन वेपो5यं कर्म्सिणां छत: ॥ कहाँ रवगं, कहाँ दुराचार ? कहाँ श्र्तिहोज, कहाँ कलि £ मेरी समक्र में सिफे विषय-सेवन की इच्छा से तूने थह कम्में- कारिडियों का रुप घारण किया है । इस प्रकार जब दुरुक्तियों की मात्रा वहुत ही बढ़ी तव वेद- व्यास श्रौर जैमिनि ने मणडन को समझा चुका कर शान्त किया । अ्रन्त को मणाइन की ख्री सरस्वती को मध्यस्थ बना कर शहर ने मणडन के साथ शास््राथं किया श्रौर उसे फ्यास्त किया । तव मरइन की ख्री ने शड्टर को शास्त्राथ के लिए दाह्ान किया । उसने जब स्त्री-पुरुष-विषयक शाख्र में शड्टर से प्रश्न किया तब उनसे उत्तर न वन पड़ा । इसलिए कुछ दिनों की मुदलत लेकर शहर ने इस शास्र को भी, पक सतक राजा के शव में प्रवेश करके, पढा श्र वहाँ से लौट कर थथा- समय सरस्वती को भी उन्होंने शासत्राथ में जीता ।




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