कालिदास की निरंकुशता | Kalidas Ki Nirankushata

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Kalidas Ki Nirankushata by महावीरप्रसाद द्विवेदी - Mahaveerprasad Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कालिदास की निरङ्कशता । ७ व) का न्याय श्नापसे नही चाहत कि हमारा यह काम उचिते या ्रनुचित । हम सिफ श्राप से इस उचित या श्रनुचित काम कं लिए क्षमा चाहते हैं । दम सिफ ध्रापसे दया के प्रार्थी हैं । हमारी प्राथना स्वीकार करना या न करना स्वधा भाप ही कं हाथ में है । (९) उपसा की होनता । उपमालझार में और कोई कवि कालिदास की बराबरी नहीं कर सकता । कालिदास से अपनी उपमाओ्ं में उपमान श्र उपमेय का ऐसा श्रन्छा साटश्य दिखलाया है जैसा और किसी की उपमाओओं में नहीं पाया जाता । इनकी उपमाओं में लिड् झ्रार वचन-सम्बन्धी भद प्रायः कर्हा नहीं देखा जाता । उपमा से इनकी वण्यं वस्तु इतने विशद भावस हृदय में श्रद्धित हा जातीरहै कि इनको कविता का रसास्वादन कदं गुणा अधिक अ्मानन्ददायक हौ उठता है । यह सब होने पर भी इनके काव्यां में कुछ उपमाये एसी देखी जाती हैं जो इनकी श्रन्यान्य उपमाओओं कं मुकाबले मे बहुत हीन हं । एक उदाहरण लीजिए :-- लवण नामक रात्तस क भ्रयाचारों से पीडति होकर देव ताओं ने रामचन्द्र की शरण ली । उन्होने प्राथनाको कि इसे प्राप मारिए । रामचन्द्र ने यह काम शचत्र के सिषुद करिया | इस विषय में कालिदास रघुवंश के पन्द्रहवें सगं में कहते ह :-- यः कश्चन रघूणां हि परमेकः परन्तपः । श्रपवाद दवोत्सग व्यावतेयितुमीरवरः ॥ ७ ॥




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