राष्ट्रभाषा रजत जयंती ग्रंथ | Rashtr Bhasha Rajat Jaynti Granth

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Book Image : राष्ट्रभाषा रजत जयंती ग्रंथ  - Rashtr Bhasha Rajat Jaynti Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द राष्ट्रभाषा रजत-जयन्ती ग्रथ गैर हे--ऐसा मुझे आभास तक नही हुआ। माताओ और वहनो की निगाहें मेरे प्रति हमेशा पुर्ण सहानुभूति की होती थी । १९३४ का साल आया। हिंदी के अध्यापन और प्रचार के फलस्वरूप उस साल हिंदी साहित्य-सम्मेलन की परीक्षा में ७ परीक्षार्थी बैठे । इधर हरिजन-कार्य के लिए महात्मा गाघी उत्कल आये। पुरी में उनके पथ-प्रदर्शन से नया उत्साह आ गया था। उनका काम तो सदा ऐतिहासिक होता था। उन्होने पैदल भ्रमण आरभ किया और इसका नाम रक्खा “'हरिजन-पद- यात्रा” गाधघी जी की हरिजन-पदयात्रा का समाचार पाकर मेंने उनसे मिलने का निसचय किय। और चल पडा। मेने यह यात्रा दो उद्देक्यो से की थी। एक तो उन्हे सभा की आर्थिक दया का परिचय कराना था, दूसरा गाधी जी के द्वारा परीक्षा मे उत्तीणं परीक्षार्थियों को प्रमाणपत्र और पुरस्कार दिलाना था। उस दिन सबेरे ९ वजे गाघी जी का पुरी के परचात्‌ प्रथम पडाव साक्षी-गोपाल से था । मे वही गया। महादेव भाई से गान्धी जी से मिलने का समय माँगा। उन्होने साफ इन्कार कर दिया, पर मुझे तो मिलना था उनसे । मेने देखा, गाघी जी एक झोपडी में भोजन कर रहे है। मीरा बहन परोस रही है। द्वार का पर्दा जरा सा उठाया और सामने हो गया। गाधी जी ने मेरी ओर देखा। मेने कहा-- में यहाँ हिंदी का प्रचार करता हूँ। आप से मिलकर कुछ वातें कहूँगा। गाघी जी ने कहा--कल सुवह जब हम लोग पैदल चलेंगे, रास्ते में वातें होगी। फिर हाथ जोडे और लौट आया। यह किसी को मालूम नही था। में आकर चुपचाप एक आम के पेड की छाया में बैठ गया। मन कहता--अरे चल घर, यह जरा सी बात उनको याद भी रहेगी । बुद्धि कहती--नही, रुक जाओ, उन्होने कहा जो है। अगर याद रखें, वुलायें तो ! इसी ऊहापोह में रात बीती, सबेरा हुआ। प्रार्थना हुई, जलूपान हुआ, चलने की तैयारी हुई। ठीक समय पर गाधी जी झोपडी से निकल पड़े। मे यात्रियों की पाँचवी पक्ति में था। साक्षी-गोपाल के गोइडे से गये ही थे कि गाधी जी ने गोपवन्धु जी चौधरी से पूछा--उत्कल में जो हिंदी का प्रचार करते हे, उनको बुलाओ । नामततो वतलाने का समय ही मुझे नहीं मिला था । उनके पुछते ही मे उपस्थित हो गया । मेने अपनी उक्त दोनो वातें उनसे कही । आपने कहा--पुरस्कार तो कटक में दे दूँगा, लेकिन दूसरी वात जो अर्थ से सबघ रखती है, उसके लिए तुमको भद्रख जाना होगा। वहाँ कलकत्ते से वसन्तलाल जी आ रहे हे। बात तय कर दूँगा। मेने कहा--पयें पहरेवाले मुझे जाने दे तब न ? आपने कहा-- में कह दूँगा और जब तुम देखना कि मेरे पास वसन्तलाल हैं तो बेरोक चले आना। गाघीजी कटक आयें। शाम के समय काठजोडी नदी के मैदान में सभा का आयोजन हुआ। वही प्रमाणपत्र और पुरस्कार देना था। गाधी जी से सभा की स्थापना के उद्देश्य और उसके सभापति तथा मत्री आदि का परिचय कराया गया । उन्होने प्रसन्नतापूर्वक राप्ट्रभापा बोलते हुए प्रमाणपत्र और पुरस्कार दिये, लेकिन पुरस्कार को दानस्वरूप माँग लिया । हरिजन




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