धर्म परीक्षा | Dharmpariksha

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Dharmpariksha by पन्नालाल बाकलीबच्चन - Pannalal Bakalibachchan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( है ) लिये उद्देगरूप करते हैं ? ॥१०॥ कवियोंकर घ्राराध्यप्रान किया हुधा भी ख श्पनी बक्रताकों नहीं छोडता, नस, परको ताए करनेमें प्रवीण श्रप्ि, पूजा की हुई भी ला देती है, अपने स्तभावकों नि छोड़ती ॥ ११ ॥ श्ावाय शंका करते हैं कि, विध॑ताने मेपर, चन्दन, चंद्रमा और . सु तुरुप ये ४ पदाये एक दी जातिके घनाये हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो ये सब बिना कारण ही लोगोंका निरन्तर महान उपकार क्यों करते १ ॥१९॥। जिसमकार राहुफर पीड़ित किया हुवा ( ग्रसाहुवा ) भी चन्द्रमा अपनी असृतपयी कि रणोंसि उस राहुकी भी तृप्ति करता है, इसीप्रकार दुजेनॉकर 'तिरस्काररूप, किया हुवा भी सज्जन पुरुंप अपने गुणोंसे उन दुजजनोंका भी सदा उपकार ही करता है १३) जैसें स्वभावते ही चन्द्रमाको शीतल और झुय्येको उध्णा देख कोई भी रागढ्वेष नहिं करता, उसी प्रकार सज्जनमें शुण थोर दुनेनमें दोप देखकर सतुरुप कं भी तोप रोप (हषेविषाद ) नई करते | १४॥ जो घ्मे गरुधरोंकर परीक्षा किया गया हैं बह मुक्कर किसमकार परीक्षा किया ना सक्ता है ! क्यों (१ ) यह दृ्ांत धन्यमतकी अपेक्षा हि. क्योंकि अन्यमतावलस्थी ्रह्माको ( विधाताको ) जगतका कर्ता मानते हैं, जैनी शगत्‌कों अनादि िधन मानते हैं. परंदु कद्दीं २ दांत दगेरहमें अन्यमतकी अपेक्षा कइ- मेकी अनेक आचाथ्यीकी रुढि दे. सो पाठक महादाय उसकों सा व जि ममतम्रतिपाद न समझ




User Reviews

  • Tanmay Jain

    at 2020-09-22 02:15:58
    Rated : 10 out of 10 stars.
    "बहुत ही अच्छा ग्रंथ है,हर जैनी को पढ़ना चाहिए"
    बहुत ही अच्छा ग्रंथ है,हर जैनी को पढ़ना चाहिए
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