पुरुषार्थसिद्धधपाय | Purusharth Sidayoupaya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
482
श्रेणी :
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No Information available about प० मुन्नालाल रांधेलीय वर्णी - Pt. Munnalal Randheleey Varni
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१. सम्यग्द्शनाधिकार कष ः ० ..
अविनाभावी हैं। अतएव किसी एकका नाम लेंनेसे दोनोंका ग्रहूंग हो जाता है, लोकमें ऐसा न्याय
_ है। जैसे . कि माताका नाम लेनेसे पिताका नांम आ जाता है या रूपके कहनेसे सहचर रसका
.. शी कथन या ग्रहण हो जाता है । त्तदचुसार यहाँ पर भी विज्ञाचता--परंज्योतिके.साथ वीतरा-
.. गताका भी उपादान हो जाता हैं। अरहूंत या केवलज्ञानी होनेके लिये .वीतरागता व विज्ञानता
. दोनोंकी आवश्यकता होती है व मानी गई है ।' अस्तु, ये दोनों आत्माका स्वभाव हैं तथा
_ ज्ञानके साथ वैराग्य होता है अत्त: जोड़ोदार भी हैं । ज्ञानका अथ॑ यहाँ भेदविज्ञान है, किन्तु साधारण
. ज्ञान नहीं है जो सभी जीवोंमें 'रहा करता है, कारणकि वह जीवद्रव्यका साधारण लक्षण * है
. जो.दूसरी द्रव्योंमें नहीं पाया जाता । हमेशा गुण हीरै पूज्य होते हैं, वेष वगैरह पुज्य नहीं होते
' क्योंकि वे जड़ पुदगलकी पर्यायरूप हैं इत्यादि । गुण और गुणीका परस्पर भेद न होनेसे गुणोंके
नमस्कार द्वारा गणीका नमस्कार अनायास ( आनुषंगिक ) सिद्ध हो जाता है । किम्बहुना ।
आचायं या साधु-मुनि ( श्रमण ) का मुख्य कर्तव्य “्रामण्य' का याने माध्यस्थ्यभावका
_-.बनाम समताभाव या. निर्विकल्पकताका भलीभाँति निर्वाह, करना है अर्थात् उसको रागछ्ेषसे
रहित होकर निन्दा-स्तुति, कांच-कंचन, दात्र -मित्र, आदि सबमें कोई विकारीभाव या पक्षपात
नंहीं करना चाहिये -'सत्त्वेष मेत्रीं गणिप प्रमोद इत्यादि भावना भी वर्जनीय वतलाई हैं, कारण
कि उससे वन्ध होता है। इसीलिये स्वामी समन्तभद्राचायेंने रत्नकरंडश्रावकाचारमें “विषया-
_ शावजातीतों निरारंभोध्परिग्रह: ज्ञानध्यानतपोरक्त: तपरवी स प्रदास्यते”।। लिखा है । सब आरंभ-
परिग्रहू, विषयवासनासे रहित सिफ़॑ ज्ञान, ध्यान व तपमें छीन रहने वाला साधु या श्रमण होता है
_:व होना- चाहिये, दोष सभी काय॑ उसके लिये वर्जनीय हैं--पदवीके विरुद्ध हैं इत्यादि । शास्त्र-
.. रचना आदि कतंव्य है। आचायंने शास्त्र-रचनाकर सराहनीय कार्य किया हैं, पदके अनुकूल हैं ।
.. पुन: परमज्योति: ( केवलज्ञान ) की और विज्षेष महिमा ( तारीफ ) है--उसका जेयोंके
साथ नित्य सम्बन्ध सिर्फ निमित्तनैमित्तक है यानें ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है, उत्पाद्य-उत्पादक सम्बन्ध
नहीं है, यह बताया जाता है। -
..... « ज्योति: प्रकाशकों कहते हैं सो वह ज्योति: या प्रकादा जीवद्रव्य ( चेतन ) में होता है
:- और पुदुगलद्रव्य ( रत्न वगैरह जड़ ) में भी होता है । परन्तु ज्योतिका महत्त्व सिफं प्रकाश करनेसे
... नहीं होता किन्तु ' खुद अंपनेको जाननेसे होता है। ऐसी स्थितिमें पुदगलद्रव्य ( अजीव ) की
: ' ज्योति ज्ञान या चेतनता रहित होनेसे वैसी आदरणीय नहीं होती जैसी कि आत्मा ( जीव ) की
.. ज्योति आदरणीय होती है । अस्तु, इसके सिवाय जड़की ज्योति जड़को ही प्रकाशित करती है
_ चेतनको प्रकाशित नहीं करती । जैसे कि एक्सरा शरीरके मामूली स्थूल विकारकों बताता है
कल एम
. है. तीन भुवनमें सार वीतराग-विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार नमहूँ त्रियोग सम्हारिके ॥।
सकी, क -छहढाला १-१
न मंगलमंय मंगलकरन वीतराग-विज्ञान । नमों ताहि जातें भये अरहूंता दिमहान् ।॥। --मोक्षमार्ग प्रका०
२. तरवार्थसूत्रमें 'उपयोगो लक्षणमु” कहा गया है । --अ०र२ सुत्र ॥८॥।
: ' रे. गुणा: पूज्याः पुसां न च विकृतवेषो न् च वयः |--स्वयंभूस्तोत्र
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