जैन शिलालेख संग्रह भाग - 4 | jain Shila Lekh Sangrah Bhag - 4

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jain Shila Lekh Sangrah Bhag - 4   by विद्याधर जोहरापुरकर- Vidyadhar Joharapurkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ट्द कराया था । दूसरे लेख ( क्र० १३१ ) में सन्‌ १०४५ में इस गणके कुछ आचार्योका वर्णन हैं । इस समय चावुण्ड नामक अधिकारोने मुगुन्द ग्राममें एक जिनालय बनवाया था । अन्य दो लेख ( क्र० ६११ तथा ६१२ ) अनिश्चित समयके निधिधि लेख हैं । इनमें पहला लेख इस गणके दान्त- वोरदेवके समाधिमरणका स्मारक है । यापनीय संघका दूसरा गण पुन्नागवक्षमूल गण चार लेखोंसे ज्ञात होता है ( क्र० १३०, २५९, १६८, ६०७ ) । पहले लेखमें सन्‌ १०४४ मे इस गणके बालचन्द्र आचार्यकों पूलि नगरके नवनिर्मित जिनालयके लिए कुछ दान दिये जानेका वर्णन है । इसी लेखके उत्तरार्धमें सन्‌ ११४५ में इस गणके रामचन्द्र आचार्यको कुछ दान दिये जानेका उल्लेख है । इस गणका अगला उल्लेख ( क्र० २५९ ) सन्‌ ११६५ का है। इसमें इस गणकी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है - मुनिचन्द्र - विजयकीति - कुमार- कीर्ति त्रेविद्य - विजयकीति ( द्वितीय ) । शिलाहार राजा विजयादित्यके सेनापति कालणने एक्कसम्बुगे नगरमें एक जिनालय बनवाकर उसके लिए विजयकीति ( द्वितीय ) को कुछ दान दिया था । एक लेखमें ( क्रर १६८ ) वृक्षमूलगणके मुनिच्द्ध त्रेविद्यके शिष्य चारुकीति पण्डित- को कुछ दान दिये. जानेका वर्णन है - यह सन्‌ १०९६ का लेख है । एक अनिश्चित समयके लेख ( क्र० ६०७ ) में भी वृक्षमूलगणके एक मन्दिर कुसुमजिनालयका उल्लेख है। हमारा अनुमान है कि इन दो लेखोंका वृक्षमूलगण पुन्नागवक्षमूलगणसे भिन्न नही होगा।' यापनीय संघके कण्डूर गणका उल्लेख तीन लेखोंमे है ( क्र० २०७, ३६८,३८६ ) इनमें पहला लेख १२वीं सदीके पूर्वांधका है तथा इसमें १. पहले संग्रहमें पुन्नागइक्षमूलगणके दो उल्लेख सनू द१२ तथा सन्‌ ११०८ के हैं ( क्र० १२४, २५० )।




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