मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में रहस्य - भावना | Madhykalin Hindi Jain Kavya Men Rahasy - Bhavana
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
345
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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भोह विचिकित्सा, शोक भौर धर्म । शान के पांच भेद है--मति; श्रत, भवधि, मेन:
पथ भौर केवलशान । इस सूत्र; में विशिष्ट ज्ञान के अभाव की ही बात की मई
है। इसका स्पष्ट तात्पयं यह है कि व्यक्ति संसार में मोहादिक कर्मों के कारण
भटकता रहता है। जो साधक यहू जान लेता है वही व्यक्ति भात्मश, होता हैं। उसी
को मेषावी भौर कुशल कहा गया है। ऐसा साधक कर्मों से बंधा नहीं रहता । वह
को भ्रन्ममादी बनकर विकर्प जाल से मुक्त हो जाता है । यहां भरहिसा, सत्य भादि
का विवेचन मिलता है पर उसका वर्गीकरण नहीं दिखाई देता । उसी तरह कर्मों
भौर उतके प्रभावों का बन तो है पर उसके सेद-प्रभेदों का वर्णन दिखाई नहीं
देता । कुन्दकुन्दाचायें तक भाते-भाते इन धर्मों का कुछ विकास हुआ जो उनके प्रंथों
में प्रतिबिम्बित होता है |
2. नध्दकाल,
कुन्दकुन्दाचाय॑ के बाद उनके ही पद चिन्हों पर भ्राचार्य उमास्वोत्ति, समन्त-
भद्र, सिद्धसेन दिवाकर, सुनि कातिकेय, झकलक, बिद्यानन्द, भनन्तवीयय, प्रभाचन्द्र,
मुनि योगेन्दु भादि झाचायों ने रहस्पवाद का. अपनी सामयिक परिस्थितियों के झनु-
सार विश्लेषण किया । यह दार्शनिक युग था । उमास्वाति से इसका सूत्रपात किया
था भौर मारिक्यनन्दी ने उसे चरम विकास पर पहुंचाया था । इस बीच जन रहस्य
बाद दार्शनिक सीमा मे बद्ध हो गया । इसे हम जैन दाशंनिक रहस्यवाद भी कह
सकते हैं । दाशंनिक सिद्धान्तों के श्रत्य विकास के साथ एक उल्लेखनीय विकास यह
था कि भादिकाल में जिस झात्मिक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कहा गया था भर इन्द्िय
प्रत्यक्ष को परोक्ष कहा गया था, उस पर इस काल मे प्रश्न-प्रतिप्रश्न खड़े हुए ।
उन्हें सुलभाने की दुष्टि से प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये- सांब्यावहारिक प्रत्यक्ष श्रौर
पारमार्थिक प्रत्यक्ष । यहा निश्चय नय श्ौर व्यवहार नय की दृष्टि से विश्लेषण
किया गया । साधना के स्वरूप में भी कुछ परिवतंन हुमा !
इस काल मे बस्तुत: साधना का क्षेत्र विह्तृत हुआ । भ्रारमा के स्वरूप की
खूब मीसांसा हुई | उपयोगात्मकता पर ध्रधघिक जोर दिया गया, कर्मों के भेद-प्रभेद
पर मंथल हुमा भर शान-प्रमाणा को भी चर्चा का विषय बनाया गया । दर्शन के
सभी भ्रगों पर तरकंनिष्ठ भ्रस्थों को भी रचना हुई। पर इस युग में साधना का बहु
:रूप नहीं 'चि्ाई देता जो श्ारम्मिक काल में था । साधना का तक के साथ उतसा
सामब्जस्य बैठता भी नहीं है । इसके बावजूद दर्शन के साथ साधना भर भक्ति का
निर्भर सूख नहीं पाया बल्कि सुधारात्मक तत्वों के साथ बहू भक्ति झान्दोलन का
रूप ग्रहण करता गया । इस काल में दाशंमिक उथल-पुथयल बहुत हुई धर क्रिया
काण्ड की भोर प्रइत्तियां बढ़ने लगी । “अप्पा सो परमप्या” झयवा सब्वे सुद्ध ट्
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