संस्कृत काव्यशास्त्र के कीर्तिमान | Sanskrit Kavyashastra Ke Kirtiman

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Sanskrit Kavyashastra Ke Kirtiman by डॉ. वेंकट शर्मा - Dr. Venkat Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नयनवदनप्रसाद: स्मितमधुरवचोधुतिप्रमोद्च । मधुरंदचां गविकौरस्तस्याभिनय: . प्रयोक्भव्य: 114 हास्य रस--हास्य हासस्थायिभावात्मक रस है । वह दूसरों के विक्ृत वेशों और अलंकारों तथा घाष्ट् य, लौल्य, कुहक, असत, प्रलाप, व्यंग्य एवम्‌ दोष दर्शन आदि विभावों द्वारा उत्पन्न होता है । उसका अभिनय करते समय ओष्ठ, नाक और कपोल आदि का स्पंदन, दृष्टि का व्याकोश, तथा आकुंचन आदि अनुभावों का प्रयोग किया जाता है । अवहित्था, आलस्य,तन्द्रा, निद्रा, स्वप्न, प्रबोध और असूया आदि उसके व्यभि- चारी भाव हैं । उसके “आत्मस्थ' और “परस्थ' नामक दो भेद माने गये हैं । स्वयं हंसने पर *आत्मस्थ' और दूसरों को हँसाने पर 'परस्थ' हास्य होता है । भरतमुनि ने आनुवंझय रलोकों“* द्वारा इसका निरूपण करते हुए लिखा है कि विपरीत अलंकारों, विकृत आचरणों, अभिधानों, वेशों एवं अंगविकारों द्वारा हास्य रस की सामग्री जुटाई जाती है। यह नीच प्रकृति वाले पुरुषों और स्त्रियों की चेष्टाओं में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है । स्मित, हसित विहसित, उपहसित, अपहसित और अतिहसित नामक इसके कुछ प्रकार हूँ जिनके दो-दो रूप क्रमद्व: उत्तम, मध्यम तथा अधम प्रकृति वाले पात्रों में मिलते हैं। भरतमुनि ने स्मित और हसित ज्येष्ठ पात्रों में, विहसित और उपहसित मध्यम श्र णी के व्यक्तियों में तथा अपहसित और अतिहसित अधम लोगों में माने हैं । नाट्यशास्त्र के षष्ट अध्याय की इलोक संख्या 55 से लेकर 62 तक इन छह प्रकार के हासों के लक्षणों, चेष्टाओं तथा पात्रों की आत्मस्थ तथा परस्थ स्थितियों का निरूपण किया गया है । कफरुण रस --दोक नामक स्थायी भाव से प्रादुर्भूत होने वाले रस को करुण रस कहते हैं । वह शापक्लेशविनिपतित प्रियजन के विप्रयोग, विभवनाश, वध, बंध, विद्रव, उपघात तथा व्यसनसंयोग आदि विभावों से उत्पन्न होता है। अनुपात, परिदेवन, मुख- दोषण, ववण्यें, तिःश्वास और स्मृतिलोप आदि अनुभावों द्वारा इसे अभिनीत किया जाता है। निवद, ग्लानि, चिन्ता, औत्सुक्य, आवेग, श्रम, मोह, श्रम, भय, विषाद, दैन्य, व्याघि, जड़ता; उन्माद, अपस्मार, त्रास, आलस्य, मरण, स्तम्भ, वेपथु, वैवण्य॑ं, अश्र और स्वर भेद आदि इसके व्यभिचारी भाव है । भरतमुनि का कथन है कि प्रियजनों के वध तथा अप्रियवचनों के श्रवण आदि कारणजन्य भावविदषषों द्वारा करुण रस उत्पन्न है । .... रोद्र रस--भरतमुनि ने क्रोधस्थायिभावात्सक रौद्र रस को राक्षस, दानव, उद्धत मनुष्य प्रकृतिक तथा संग्राम हेतुक माना है। यह रस क्रोध धर्षण, अधिक्षेप, अपमान, असत्य वचन, उपघात, वाक्पारुष्य, अभिद्रोह और मात्सर्य आदि विभावों से उत्पन्न होता है । इसके कमं कलाप के अंतर्गत ताडन, पाटन, पीडन, प्रहरण, आहरण, शस्त्रसंपात, प्रहार तथा रुधिरकर्षण आदि की गणना की जाती है। इसका अभिनय करते समय रक्त नयन, स्वेद, श्रकुटीक रणावष्टंभ, दंतौष्ठपीडन, गण्डस्फुरण तथा हस्ता- ग्रनिष्पेष आदि अनुभावों का प्रयोग किया जाता है । इसके व्यभिचारी भावों के अंतर्गत उत्साह, आवेग, अम्ष॑, चपलता, उम्रता, गर्व, विकृत दृष्टि, स्वेद, वेपथ, रोमांच और




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