हिन्दू धर्म | Hindu Dharm

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पंडित द्वारकानाथ तिवारी - Pandit Dwarkanath Tiwari

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स्वामी विवेकानंद - Swami Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दू धर्म की सावंभोमिकता में विद्यमान हूँ और जब इस शरीर का पतन द्ोगा, तब भी में विद्यमान रूँगा ही, एवं इस दारीर-ग्रहण के प्रवे भी मैं विदमान था । अतः आत्मा किसी पदाथ से सृष्ट नद्दीं हुआ है, क्येंफक सृष्टि का अथे दे मिन भिन्न द्रन्यें का एकन्नीकरण और इस एकत्रीकरण का अथ डोता है भविष्य में अवस्यम्भावी प्रथक्रण । अतएव यदि आत्मा का सृजन डुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिये । इससे सिद्ध थो गया कि आत्मा का सृजन नहीं हुआ था, वह कोई सूष्ट पदाथ नहीं दै । पुनइच, कुछ लोग जन्म से ही छुखी होते है, प्रण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं, उन्दें संदर शरीर, उत्साहपूण मन और सभी आधरयक सामग्रियोँ प्राप्त रहती हैं । अन्य कुछ लोग जन्म से दी दुःखी होते हैं, किसी के दाथ पांव नद्दीं होते, तो कोई निमुद्ध होते कं, और येन कन- प्रकारेण अपन दुःखमय जीवन के दिन काटत हैं। ऐसा क्यों ? यदि ये सभी एक दी न्यायी और दयालु इश्वर के उत्पन किये हो तो फिर उसने एक को सुखी और दूसे को दुःखी क्यों बनाया !? भगवान्‌ ऐसा पक्षपाती क्यों हे ? और ऐसा मानने से भी बात नहीं छुधर सकती कि जो इस वर्तमान जीवन में दुःखी हैं, वे भावी जीवन में पूण दुखी ही रहेंगे । न्यायी और दयाल॒ भगवान्‌ के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे ? दूसरी बात यह दे कि सृष्टि-उत्पादक इश्वर को माननेवाले सृष्टि में इप्त वैषम्य के लिये कोई कारण बताने का प्रयत्न भी नददीं करते । इससे तो केवल एक सवशक्तिमान स्वेभ्छाचा[री पुरुष का निष्ठुर व्यवद्दार ही प्रतात होता दे । परन्तु यद पद




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