हिन्दू धर्म की आख्यायिका | Hindu Dharm Ki Aakhyayika

Hindu Dharm Ki Aakhyayika by पं. कालिकाप्रसाद - Pt. Kalikaprasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सत्यकास जाबाल ब न शिक्षा पढाई न-निबन्ध पढाया मैंने उसे जीवन को गुनने भेज दिया । श्राज जब जीवन की उस विद्या में पारगत होकर सत्यकाम वापस आ पहुँचा है हम अभी अपने वेदों और उपवेदो से ही छुट्टी नहीं पा सके दो और इस जीवन मे कदाचित्‌ पा भी न सको । तुम अपनी विद्या गे योरखधन्धे में ऐने उलके हो कि मत्रो ओर क्रो के बाहर जो सच्चा जीवन प्रवाहित है उस आर देखने का विचार तक तुम्हारे हृदय स पढ़ा नहीं होगी | में तुमसे क्‍या कहूँ ? ये वेद आदि तो सब बाह्य विद्याए हूं यदि ये सच्ची विद्या की प्राप्ति में सहायक होती हैं तो अच्छी हैं झ्न्यथा सच सानो कि यह सब बोक ही वोक है । सच्चा जीवन इन सबसे परे की कोई चीन है । सत्यकाम ने उम चीन को पा लिया है श्रगर तुम चाहोगे तो वह अपनी सारी बात अथ से इति तक तुम्हे सुनायेगा | वेंदो से भी जो वस्तु प्राय नहीं मिलती जीवन के रहस्य का उद्घाटन करनेवाली वह वस्तु इस तरह की चर्चा मे से मिल जाती है । में तो इससे भी अधिक तुम्हें कहना चाहता हूँ । जानते हो जिन वेदों का तुम श्रभ्यास करते हो वे वेद हैं क्या चीज १ सत्यकाम के समान पुरुष जब्र जीवन के रहस्य को पा जाते हैं तो उनकी वाणी ही वेढ बन जाती है । इसलिए हमारे ऋषि- सुनि कह गये हैं कि वेद श्रनत हैं । तुम अपने समीप वेँठ हुए इस जीते- जागते वेद को भूलकर अपने रटे हुए वेदों से चिपके न रहना । बेटा सत्यकाम आओ में तुम्हे शान की अन्तिम दीक्षा दूं । इसके वाद तुम्दी इस गुरकुल के आचाय हो मरे दिन तो श्रब बीत चुके हैं। मुझे जाने दो । यों कह गुरु ने सत्यकाम को झ्न्तिम दीक्षा दी श्रौर सारा शराश्रम उसीके सुपुब करके स्वय चले गये ।




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