जगत् और जैनदर्शन | Jagat Aur Jainadarshan
श्रेणी : धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
93
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ २ |
तत् तेषां परिवतनमेव “धमपरावतनमी मांसाया:' तात्पये-
मवधारयामि, यत आत्मधर्माणां परिवतनं तु कृतेउपि
प्रयतने न केनापि विधातु' शक््यते । अच्छे भेद डनाहाय-
उकपाय्यादय आत्मस्वरूपनिवचनपरा आत्मनों धर्माः
सन्ति । तदेतेषां को वा कृती परिवतंनं विधास्यति |
अधघुना ये शेववेष्णवजेनबौद्धा 55 दिव्यपदेशभाजो उनेके
धर्मा: सन्ति तेषां परामशापिक्षया मनुष्य ( जाति )-
भेदानेव विचारयितुमहमावश्यकं मन्ये ।
वाचकाचार्या: श्रीमदुमास्वातिनामधेया जैनाचाय-
शिरोमणयो मनुष्यभेदविषये सत्रमेकमचकथन् । तथाहि--
'मनुष्या दिविधा।-आया म्ठेच्छाश्र' । 'तत्र ऋच्छन्ति
दूरीभवन्ति सवहेयधर्मेग्य इत्यार्या:' । इमां व्याख्यामव-
लम्ब्य यद्यपि भवन्त एव आर्यानायपरामर्श विधातु'
शक््नुवन्ति तथापि विषयमिमं विशदीकतु जेनागमनि-
दिंशानायमेदानेव संश्षेपतः प्रतिपादयामि । प्रज्ञापनास्तरे
प्रथमपदे वक्ष्यमाणसरण्या आयांणां मेदा: प्रतिपादिता: ।
तत्र हि. मूठभेदी दौ-'ऋद्धिमानायों उनृद्धिमानायश्र ।'
य आत्मद्धिमान स एवर्द्िमानाय: प्रोच्यते, नतु केवल-
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