मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म | Madhya Asia Aur Punjab Me Jain Dharam

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Madhya Asia Aur Punjab Me Jain Dharam by हीरालाल दूगड़ - Hiralal Doogad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(153) इस इतिहास म्रंव में चीन, महाचीन, तिम्बत, इराक, ईराण पशिया, ककस्तात, युनान, तुकिस्तान अफगानिस्तान, कम्दोज, बिलोचिस्तान, धरब, काबुल, नेपाल, मटान, सी माप्रांत, तक्षसिला, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, कुरुक्षेत्र, काइमीर, सिंघ, लंका, हंसद्ीप, क्ोंचड़ी य इत्यादि, झनेक झेत्रों धर्षात्‌ चीत से लेकर दिल्‍ली की सीमा तक के इतिहास का समावेश है । य्टी कारण कि इसका नाम मध्य एशिया प्ौर पंजाब में जैनघ्म रखा है । इस पुस्तक में श्री ऋषमभदेव, ऋग्वेदकाल से लेकर भाज तक के जन इतिहास का संकसन है। इस प्रंध में क्यानवया विषय संकलित किये हैं उसको पाठक ध्रतुकमणशिका (विषय सूचि) से पढ़कर जान पायेंगे । इस ग्रंथ में जैनघम के भ्रनेक पहलूगों पर भ्लोचनात्मक दिवद विवेचन भी किया है भौर लिखते हुए दृष्टिराग श्रथवा साम्प्रदायिक ग्यामोह से पूरी तरह बचने के लिये विवेक को नजर झन्दाज (दृष्टि प्रोकल) नहीं किया गया । घार्मिक भावना जबसंप्रदायिक रूप धारण कर लेती है तब बहुत भ्टपटी बन जाती है । इससे सत्यांश ध्ौर निभयता का प्ंश दब जाता है । इसमें संप्रदायिक झधवा वास्तविक धार्मिक किसी भी मुद्दे पर चर्चा ऐतिहासिक दृष्टि से करने पर कई पाठकों के मल में सांप्रदायिक भावना की गंध श्रा जाना सम्भव है । यह बात मेरे ध्यान से बाहर नहीं है। भ्राजकल ऐतिहासिक दष्टि के नाम पर श्रथवा किसी की आड़ में सांप्रदायिक भावना को पोषण करने वी प्रवृत्ति प्रथवा विचारक माने जाने वाले व्यक्तियों में भी दिखलाई पड़ती है। ऐसी भावना से लिखे गये इतिहासिक प्रंथों में देखा जाता है कि उसमें इतिहास से खिलवाड़ की गई है । इन सब भयस्थानों के होते हुए भी मैंने इस प्रंथ में ग्रनेक ऐसी चर्चाएं भी की हैं जिन्हें साम्प्रदायिक ब्यामोह के पर्दे के पीछे ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य परखने की भावश्यकता रही हुई है । इस एक हो विचारणा से कि जो भ्रसांप्रदायिक भ्रथवा सप्रदायिक सत्य शोधक होंगे, जो सत्य श्रौर इतिहास के धमिलाषी होगे उन्हें यह चर्चाएं कदापि सांप्रदायिक भाव से रंगी हुई भासित नहीं होगी भीर सत्य की प्रतीति के लिए भ्रत्यंत उप- योगी मालूम पढ़ेंगी । इतिहास का कोई पारावार नहीं है भीर न ही कोई इसे पूण रूप से लिखने का सामथ्ये रखता है । जैसे-जैसे शोध खोज होती रहती है । बंसे-वैसे इतिहास के नये-नये परत खुलते रहे हैं। भरत: जहाँ तक मु से बन पाया है मैंने ्रपनी सामथ्यं के श्रनुसार लिखने का प्रयास किया है। जैनधम्म के इतिहास को लिखने के लिए सब ऐतिहा८ जों के सहयोग की श्रावव्यकता रहती है । बहुत कोदिश से छह वर्ष की भ्रवधषि में जो कुछ लिख पाया हूँ उसे संयोजकर पाठकों के सामने रख दिया है। इस कार्य में कहाँ तक सफलता मिली है इसका निर्णय तो पाठक हो कर सकते हैं । विद्द्ठ ये श्रद्धेय डा० ज्योतिप्रसाद जी जैन शत. ...1..8. लखनऊ वालों ने महती उदा- रता करके इतिहास ग्रंथ की प्रेसकॉपी को झशोपाँत पढ़ने का परिश्रम उठाया है, उनका स्नेह- पण सहयोग सदा चिरस्मरणीय रहेगा ।




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