जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व | Jain Darshan Ke Maulik Tattv

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Book Image : जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व  - Jain Darshan Ke Maulik Tattv

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मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व [३ एक विचार श्रा रहा है--दर्शन को यदि उपयोगी बनना हो तो उसे वस्तुडत्तों को खोजने की अपेक्षा उनके प्रयोजन श्रथवा मूल्य को खोजना चाहिए । भारतीय दर्शन इन दोनों शाखाओं को छूता रहा है। उसने जैसे शस्तित्व-विषयक समस्या पर विचार किया है; वैसे ही श्रस्तित्व से सम्बन्ध रखने वाली मूल्यों की समस्या पर भी विचार किया है। शेय हेय और उपादेय का जान उसी का फल है । मूल्यनिर्णय की दष्टियां मूल्य-निणुय की तीन दृष्टियां हैं :-- ( १ ) तैद्धान्तिक या बौद्धिक । (२) व्यावहारिक या नैतिक | ( ३ ) श्राध्यात्मिक, धार्मिक या पारमार्थिक । बस्तुमात्र जय है श्रौर श्रस्तित्व की दृष्टि से शेयमात्र सत्य है। सत्य का मूल्य सेद्धान्तिक होता है । यह श्रात्मानुभूति से परे नहीं होता । श्रात्म-विकास शिव है, यह श्राध्यात्मिक मूल्य है । पौद्गलिक साज-सजा सौन्दर्य है, यह व्यावहारिक मूल्य है । एक व्यक्ति सुन्दर नहीं होता किन्तु श्रात्म-विकास होने के कारण बह शिव होता है । जो शिव नहीं होता, बह सुन्दर हो सकता है । मूल्य-निर्णय की तीन दृष्टियां स्थूल नियम हैं । व्यापक दृष्टि से व्यक्तियो की जितनी श्रपेक्षाए; होती हैं, उतनी ही मूल्यांकन की दृष्टियां हैं । कहा भी है-- “न रम्यं नारम्यं प्रकृतिगुणतो बस्तु किमपि, प्रियत्व॑ बस्तूनां भवति च खल्लु प्राइकबशात्‌ ।”' प्रियत्व श्र श्रप्रियत्व आ्राहक की इच्छा के श्रघीन हैं, वस्तु में नहीं । निश्चय-दृष्टि से न कोई वस्तु इष्ट है श्रौर न कोई श्रनिष्ट । ““तानेवार्थान्‌ दिषतः, तानेवार्थान्‌ प्रलीयमानस्य । निश्चयतो5्स्यानिष्टं, न विद्यते किचिदिष्ट वा ।?* एक व्यक्ति एक मय जिस बस्तु से ढेष करता है, बही दूसरे समय उसी में लीन हो जाता है, इसलिए इष्ट-अनिष्ट किसे माना जाए. १ व्यवहार की दृष्टि में भोग-विलास जीवन का मूल्य है । अध्यात्म की




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