वृहत जैनपद संग्रह | Vrihat Jainpad Sangrah
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
406
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बुघजन विलास । [9
हो० ॥ टेक ॥ झादि अन्त अविरुद्ध वचनते,
संशय श्रम निखारोगी ॥ हो० ॥ १॥ ज्यों प्रति-
पालत गाय बत्सकों, त्यों ही मुखकों पारोगी।
सनसुख काल बाघ जब झावे, तव तत्काल उवा-
रोगी ॥ हो० ॥ २ ॥ बुधजन दास वीनवे माता,
या विनती उर धारोगी । उलसि रदयो हूं लोह-
जालसें, ताकों तुम सुरमारोगी ॥ हो० ॥ ३॥
११ राग--घिलाचर्ठ कनड़ी ।
मनकें हरष झापार--चितकें ' हरव अपार,
वानी सुनि ॥ टेक ॥ ज्यों तिरषाठुर अन्त पोवत,
चातक अंबुदद घार ॥ वानी सुनि० ॥ १ ॥ सिथ्या
तिमिर गयो ततखिन हो, संशयलरम निवार।
तत्त्वारथ अपने उर दरस्थो, जानि लियो निज
सार ॥ चानी सुनि० ॥ २ ॥ इन्द नरिंद फर्निंद
पदीघर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनंद बुधज-
नके उर, उपज्यो झपरंपार ॥ वानी सुनि० ॥शे॥
१९ राग--अलहिया ।
चन्दजिनेसुर नाथ हमारा, महासेनसुत
#जच्ध था नि
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