श्री जवाहरलालजी किरणावली - २१ (ग्रहस्त धर्म भाग -१ ) | Shri Jawahar Kirnawali Part -21 (grahast Dharam Bhag -i )

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जच तक आत्मा मे मिथ्यात्व-रूषी रोग रहता है, तब तक आत्मा दर्शन की आराधना नहीं कर सकता | जब मिथ्यात्व का कारण मिट जाएगा और कारण मिटने से मिथ्यात्व मिट जाएगा तभी दर्शन की आराधना भी हो सकेगी । मिथ्यात्व मिटा कर दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करना अपने ही हाथ की बात है। अनन्तानुवन्धी कोध, मान माया और लोभ न रहने से मिथ्यात्व भी नहीं रहेगा और जब मिथ्यात्व भी नहीं रहेगा और जब मिथ्यात्व नहीं रहेगा तो दर्शन की आराधना भी हो सकेगी । अनन्तानुवन्धी क्रोघादि को दूर करना भी अपने ही हाथ की बात है। कपषाय को दूर करने से मिथ्यात्व दूर होता है और दर्शन की आराधना होती है | विशुद्ध दर्शन की आराघना करने वाले को कोई धर्म-श्रद्धा से विचलित नहीं कर सकेगा। इतना ही नही, किन्तु जैसे अग्नि मे घी की आहुति देने से अग्नि अधिक तीव्र बनती है, उसी प्रकार धर्म-श्रद्धा से विचलित करने का ज्यो-ज्यो पयत्न किया जाएगा, त्यो-त्यो धर्म-श्रद्धा अधिक दृढ़ और तेजस्वी - पूर्ण होती जाएगी | धर्मश्रद्धा मे किस प्रकार दूढ रहना चाहिए, इस विषय मे कामदेव श्रावक का उदाहरण दिया गया है | धर्म पर दृद श्रद्धा रखने से और दर्शन की विशुद्ध आराधना करने से आत्मा उसी भव मे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। 2 सम्यक्त्व का स्वरूप ससार मे सभी जन सम्यग्दृष्टि रहना चाहते है। मिथ्यादृष्टि कोई नही रहना चाहता | किसी को मिथ्यादृष्टि कहा जाए तो उसे बुरा भी लगता है। इससे सिद्ध है कि सभी लोग सम्यग्दृष्टि रहना चाहते हैं और वास्तव मे यह चाहना उचित भी है। मगर पहले यह समझ लेना चाहिए कि सम्यक्‍्त्व का अर्थ क्या हैं? सम्यक्‌ का एक अर्थ प्रशसा-रूप है और दूसरा अर्थ अविपरीतता होता है। यद्यपि सच्चा सम्यक्त्व अविपरीतता मे ही है, पर शास्त्रकारयशस्वी कार्यो को भी समकित मे ही गिनते है। विपरीत का अर्थ उलटा है और अविपरीत का अर्थ सीधा, जैसे-का-तैसा होता है| जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप मे देखना अविपरीतता है और उलटे रूप मे देखना विपरीतता है । उदाहरणार्थ- किसी ने सीप देखी । वास्तव मे वह सीप है, फिर भी अगर कोई उसे चादी समझता है तो उसका ज्ञान विपरीत है। काठियावाड मे विचरते समय मैंने मृग-मरीचिका देखी । वह ऐसी हर परवतटरररटलनशरसशनलरनवादतर नससलगरदशएनसपफनएएससससएपएगएफलपरएसएएएएए' गृहस्थ धर्म भाग-१...




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