आधुनिक भावबोध की संज्ञा | Aadhunik Bhavabogh Ki Sangya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
206
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खो देता हैं, इसे पप्चिम का आदमी हमसे भी अधिक मात्रा में खो चुकने पर
आज फिर समझ रहा है ! ) इस सबके लिए अब न तो समय है और न स्थान ।
फलत: मनोविनोद के दो ही साधन उसके पास बच रहते हैं, या तीन । कच्ची-
पक्की शराब, ताड़ी, कुछ भी पीकर धुत हो जाना, नाच-गाने, मारकाट, कसी
चोलियों और अधनंगी छातियों से भरपूर कोई उत्तेजक फ़िलम देख लेना और
अपनी औरत के साथ सो. रहना, कँसे भी, कहीं भी । यह आदमी का नहीं,
सच्चे अर्थों में कीड़ों-मकोड़ों का. जीवन है -- और आधुनिक युग की यांत्िक-
सभ्यता में आदमी का यह जो रूपांतर होता है, शायद, इसी की कहानी काफ्का
ने अपनी 'मेटामॉरफ़ोंसिस' में कही है । मशीन ने आदमी को जीत लिया है । जहाँ
मशीन को आदमी का गुलाम होना चाहिए था, वहाँ आदमी मशीन का गुलाम
हो गया है । और अभी तो यह केवल आरम्भ है । जिस तेजी से विज्ञान की
उन्नति हो रही है, उसको देखते हुए तो इस कल्पना से ही भय मालूम होता है
कि अगले पचास बरस में ही दुनिया की क्या शक्ल होगी और उसमें आदमी कहाँ
होगा, उसकी कैसी-क्या सूरत होगी, क्या जिंदगी होगी । अभी तो, इस अर्थ में कि
आदमी के हाथ का काम मशीन करने लगी है, आदमी के हाथ का ही अवमुल्यन
हुआ है, कल जब आदमी के दिमाग़ का काम भी मशीन करने लगेगी , (जिसकी
शुरुआत भी हो गयी है, और “एलेक्ट्रानिक्स' में और भी प्रगति होगी और
पता नहीं क्या-क्या होगा, मशीन के आदमी, तरह-तरह के “रोबो', सब काम
करने लगेंगे) और आदमी के दिमाग़ का भी अवसूल्यन हो जायेगा, और निरन्तर
होता चला जायेगा, तब क्या होगा ? आज जिस अर्थ में हम आदमी को आदमी
कहकर जानते-पहचानते हैं, उस अर्थ में आदमी रह सकेगा ? क्या आज से भी
कहीं ज्यादा उन्हीं मशीनों के रूप में न ढल गया रहेगा ? एक विशिष्ट व्यक्तित्व-
वाले मानव प्राणी के रूप में और भी अपदार्थ न हो जायेगा ? फिर सवाल
पदा होता है, इससे बचने का कया उपाय है, इतिहास के इस चक्र को कैसे रोका
जा सकता है ? स्पष्ट है कि अब तक जो उन्नति विज्ञान ने कर ली है, उसको
मिटाया नहीं जा सकता । यह संभव नहीं है कि आदमी अब तक की अपनी
वैज्ञानिक उपलब्धियों को छोड़कर फिर मध्ययुग में या. आदिम युग में लौट
जाये । तो फिर क्या हम यह मान लें कि यही मनुष्य की नियति है ? ये हमारे
अस्तित्व के मौलिक प्रश्न हैं और बड़े भयानक प्रश्न हैं ।
इसके साथ ही अगर इस यंत्र-युग के मानव-संबंधों को भी जोड़ दीजिए,
तब स्थिति और भी भयावह हो जाती है । जैसा कि सभी जानते हैं, इस यंत्र-युग
और पूँजीवादी अर्थतंत्र ने एक साथ ही इतिहास के मंच पर प्रवेश किया ।
१६ ॥॥ आधुनिक भावबोध की संज्ञा ॥।
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