धर्मशास्त्र का इतिहास भाग 2 | Dharmshastra Ka Itihas Bhag-2

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Dharmshastra Ka Itihas Bhag-2 by सुरेन्द्र तिवारी - Surendra Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय १ प्रस्तावना अति प्राचीन काल में घमशास्न के अन्तर्गत राजवर्म की चर्चा होती रही है। आपस्तम्वधर्मंसूत्र (२1९२५) १) ने सक्षिप्त ढग से राजयर्म-विपयक वातों का उल्लेस्व किया है। महाभारत के शान्तिपर्व में विस्तार के साथ राज- घर्म पर विवेचन उपस्यित किया गया है (अध्याय ५६ से १३० तक अति विस्तारपूर्वक तथा कुछ अशो मे अध्याय १३१ से १७२ त्तक) । मनुस्मृति ने भी सातवें अध्याय के आरम्भ में राजधर्म पर चर्चा करने की वात उठायी है। शासन की कला एव उसके शास्त्र पर ईसवी सनू की कई दाताद्दियों पूव से ही साहित्यिक परम्पराएँ गूंजती रही हैं और विचार-विमर्श होते रहे हैं। अनुशासनपर्व (३९1८) ने वृहस्पति एव उदना के शास्त्रो का उल्लेख किया है। शान्ति पर्व (५८। १-३) ने बृहस्पति, भरद्वाज, गौरणिरा, काव्य, महेन्द्र, मनु प्राचेतस एव विशालाक्ष नामक राजधर्म-व्यास्या- ताभो के नाम गिनाये हैं। शान्तिपर्व (१०२।३१-३२) ने दाम्वर एव आचार्यों के मतों के विरोध की ओर सकेत किया है। कौटिल्य के अथ शास्त्र मे पाँच सम्प्रदायों के नामों का, अर्थात्‌--मानवो, वाहूंस्पत्यो, बौद्यनसो, पाराशरो एव आम्भियो का उल्लेख हुआ है, सात आाचार्यो, अर्थीत्‌--वाहुदन्तीपुत्र, दीघं चारायण, घोटकमुख्, कणिक, भारद्वाज, कात्यायन, किव्जल्क एवं पिदुनपुत्र के नाम एक-एक वार आये हैं (५५ एव १1८) , भारद्वाज, कौणपदन्त, पराशर, पिंदुन, वातव्याघि एव विदालाक्ष के सिद्धान्ता की चर्चा कई वार हुई है। कौटिल्य ने आचार्यों के मतो का उल्लेख कम- सै-कम ५३ वार किया है। शान्तिपर्व (१०३४४) ने राजघर्म के एक माष्य की भर सकेत किया है। स्पष्ट है कि उस काल मे शासन-कला एव शासन-शास्त्र की वातें पद्धतियों का रूप पकड चुकी थी । महाभारत, रामायण, मनु एवं कौटिल्य मे उल्लिखित विचार वहुत दिनों से चले भा रहे थे, यथा-सप्ताग राज्य, पाड्गुण्य (सन्धि, विप्रह भादि छ गुण-विद्येष ) , तीन शक्ति, चार उपाय (साम-दान-भेद-दण्ड ) , अप्टवर्ग एव पव्चचवर्ग (मनु ७1१५५), १८ तथा १५ तीयं (शान्तिपर्व ५1३८) मादि के नाम रूढि वन चुके थे (अयोध्याकाण्ड १००1६८-६९ ही राजवर्म को सभी धर्मों का तत्त्व या सार कहा गया है (आान्तिपवं १४१९-१०, ५६३) ।' राजा के क्तव्यो की मोर कतिपय धर्म शास्त्र-प्रन्यो मे प्रभूत सकेत मिलते हैं (देखिए गौतम १०।७-८, गापस्तम्वघमंसूत्र २1५1१०।१३- १६, वसिष्ठ १९ १-२, विष्णु ३ 1२-३, नारद-प्रकी्णंक ५-७ एवं ३३-३४, शान्तिप्व ७७३३ एव ५७। १५, मत्स्यपपुराण २१५६३, मा्क॑ण्डेयपुराण २७1२८ एव २८1३६ ) । इन ग्रन्यो के अवलोकन से पता चकता है कि राजघमं विष्व का सबसे बडा उद्देश्य था और इसके अन्तर्गत आचार, व्यवहार, प्रायद्चित्त आदि के सभी नियम भा जाते थे। राजा को अपने १ एवं घर्मानु राजघर्मेपु सर्वान्सर्वावस्थ सप्रलीनाझिवोध ।... सर्वा घिद्या 'राजधर्मेषु युवता सर्वे लोका राजघर्मे प्रविष्टा । सर्वे घर्मा राजधर्मेप्रवाना । शान्तिपर्व ६३1२५, २६, २९, राजमूला महाभाग योगलेमसु- वृष्टय' । प्रजासु व्याघयदचेद मरण व भयानि च ॥ कृत श्रेता द्वापर ' कलिदच भरतघंभ । राजमूला इति सतिर्मम नास्त्यत्र सघाय' ॥ शान्ति० (१४११९-१०) , स्वस्थ जीवलोकस्य राजघ्मं परायणमु । ज्ान्ति० (५६1३ ह




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